गुरुवार, 3 अक्टूबर 2019

राजस्थानी-भाषा दोहा

अब आळी औलाद नै मिलै कोनी ल्हासी।
कूकर बणै जवान ऐ, लूखी रोटी खासी।।

रोज बणावै राबड़ी, पूरो राजस्थान।
जाणै ईं नै नांव स्यूं, पूरो हिंदुस्तान।।

कोरी होवै हांडकी, बीं में ठंडी रैवै राब।
सारै दिन पीवो चाये, होवै कोनी खराब।।

राबड़ी में टैस्ट हुवै, सुवाद भोत लागै।
पीयां पछै नीन आवै, जगायो कोनी जागै।।

सै'त सुधारै राबड़ी, मेटै सगळा खोट।
ईं नै इस्तेमाल करो, मांह गेरगे रोट।।

भरगे थाळ पी ले तूं, ओ गुण करैगो राबड़ो।
मां' मरोड़ले रोट तूं, भर्यो पड़्यो है छाबड़ो।।

पी ले धापगे राबड़ी, लागै कोनी तावड़ो।
आ चीज है काजबीज, पीणी चावै बटाऊड़ो।।

खाटो भेळै बूढळी, बीं गो बणै संगीत।
राबड़ी रै कोड में, गावण लागज्यै गीत।।

लूण गेरगे ल्हासी पीयां, आयबो करै स्यांत।
टैस्ट बणै टोपगो, पाटण लागज्यै आंत।।

चरकी रोटी चीणां गी, सागै मीठा प्याज।
जाड़ा नीचै बाजबो करै, फेर सूणो-सूणो साज।।

राजस्थानी-भाषा दोहा

खारा धुंवा गिटै आदमी, किस्यो'क पड़ग्यो बैल।
साबण लगावै सरीर गै, भीतर लगावै मैल।।

सरपंची गो चुनाव लड़ै, दारू प्यावै गाम नै।
कूकर पूरो आवै गो तूं, इत्तै उलटै काम नै।।

किसान बराबर दुनिया में कोनी दूजो देव।
खेतां में फळ लटकावै, अंगूर-संतरा-सेव।।

किरसो कमाऊ देस गो, ईं पर है सो' बोझ।
अन्न बणावै एकलो, जीमै सगळी फौज।।
कई लगावै चौका और कै बांधै गा बीम।
गरीब लगावै जांटी, कै लगावै नीम।।

गरज बिना आदमी, गरब करै बोडी गो।
गरज होयां छोडै कोनी, पैंडो बेली ठोडी गो।।

उठतां पाण आदमी गै, जी में आवै बीड़ी गी।
तागै स्यूं टिपागे छोडै, खाल काढै कीड़ी गी।।

हुण तुसी दसो बेली! ऐ कै़डी है निरास्ता?
असमानता अखरदी है, रोकदी है रास्ता।।

परलीके जेड़ा पिंड कित्थे होर नहीं मिलदा।
ऐ तां लगदा है पिंड सानू, हिस्सा साडे दिल दा।।

राजस्थानी- लोकगीत चंग फागण

चंग राजस्थान री होळी रो मीठो, मादक अर मोवणो वाद्य यंत्र। रंगीलो बाजो। कई छैल भंवरिया होळी रा गेरिया बण'र चंग रै रंग में आपरो तन-मन रंग नाखै। चंग फगत होळी नै इज रंग नीं देवै, पण सगळां नै रंग नाखै। कई तौर-तरीकां सूं रंगै। कई तरै रा काचा-पाका रंगां सूं रंगै। चंग मानखै रो अंग-अंग रंगै। होळी नै हेलो मारै चंग। वो उणनै बधावै, नूंतै, ते़डै। होळी रो असली उमाव अर राग-रंग सरू करणियो मंगळ बाजो चंग, थाप हेठळ आवै कै होळी रो हरख मंड जावै। होळी रै एक महीनै पै'ली चंग रा धमीड़ा उडणा मांडै सो ठेट रंग पांचम तांई उडता ई रैवै।
होळी आवतां ई गांव-गांव अर गळी-गळी में चंग रा धमीड़ा गूंजण लागै। फाग गीतां रा बोल गम्मत करण लागै-

चंग जमावै रंग मरदां। पिचकारयां रै संग, आई होळी रे।
चंग जमावै रंग मरदां! खेलो भाठा जंग, होळी आई रे।
चंग जमावै रंग मरदां! मस्ती भरिया अंग, आई होळी रे।
चंग जमावै रंग मरदां! फागण नंग धड़ंग, होळी आई रे।

चंग होळी नै हुलरावै। मिनखां नै मुळकावै। चंग री मस्ती सूं रोम-रोम नाचण लाग जावै। ज्यूं कुदरत रो अंग-अंग मौसम आयां बदळै, उणीज भांत चंग रो डाको लागतां ई फागण रो वायरो फर्राटा मारवा लागै। अंग-अंग में कई रंग राग रा रणकोल्या, कणकोल्या चालवा लागै। तनड़ा सागै मनड़ो ई झूमण लागै। बासंती बयार अर फूल्योड़ी सरसूं धरती माथै रंग बिखेरण लागै। होळी रो हु़डदंग मनड़ै रो हरख उमाव प्रगट करण लागै।
इण भांत चंग एक नीं बाजै। उठी नै लकड़ै रै घेरै आळो चंग घुरीजण लागै तो अठीनै तनड़ै रो चंग अर मनड़ै रो घु़डलो ढाब्यां ई नीं ढबै। चंग बजावता मोट्यार अर लूहर लेवती लुगायां लाल केसियो गावण लागै अर उणनै सुण'र मरदां रै हिवड़ै रा तार झणझणाट करण लागै।
चंग गीत रै सागै बाजै। निरत रै सागै ई बाजै। चंग री बणावट साव सादी। लकड़ी रै गोळ घेरै मांय भेड रो काचो चामड़ो मंड देवै। लकड़ी पांच-छ: इंच चौड़ी अर कोई तीन-च्यार सूत मोटी। मेथी रै आटै सूं घेरा रै माथै चामड़ो चैठाय दे। बस चंग त्यार। इणनै डफ भी कैवै।
राजस्थान में होळी रै मौकै चंग बजावण रो रिवाज सगळी थो। इणरै सागै गावण अर नाचण रो रिवाज पण सै ठोड़ प्रचलित। कठैई एकल चंग माथै तो कठैई अनेकूं चंगां माथै मोट्यार नाचै। होळी रै दिनां में न्यारी-न्यारी टोळियां आपरी मन मस्ती मुजब नाचती गावती निकळ जावै। चंग माथै जिको गीत गावीजै वै फाग बाजै। आं नै धमाळ भी कैवै। यां फागां में कई फगुवाई चालै। गीतां रै सागै-सागै कई दूहा ई चालै। मस्ती में आयोड़ा गेरिया जद मौज में आय'र चंग घुरावण लागै तो यां रो मिजाज देखतां ई बणै। आछो चंग बजावणियो जद अधओगड़ियो होय'र दोनूं पग जमीं माथै वाळ नै चंग साथळ माथै टिकावतां डाकै रै ठमकां सूं उणनै बजावण लागै तो एक समो बंध जावै। कई आछा बजावणिया कलाकार तेराताळी निरत करण आळी लुगायां रै ज्यूं जमीं माथै चंग रै ठपकां देता जावै अर शरीर सूं भाव दरसावता जावै।
राजस्थान में यूं तो अमूमन चंग आदमी'ज बजावै पण काळबेलिया इतयाद समाज री लुगायां होळी रै दिनां में टोळा बणा-बणाय'र गांव-गांव अर घर-घर निकळ जावै। इण वगत वै कई तरै रा गीत गावै अर धान-चून अनै पईसा टका भेळा करै। एक लुगाई चंग बजावै अर दूजी घूंघटो काढ्यां बीं रै ओळै-दोळै नाचै। बाकी री फाग गावै। लुगायां आळो चंग मरदां रै चंग सूं थोड़ो नैनो होवै। इणरी लकड़ी जाडी होवै। इण माथै खाल ई बकरी री मंडीजै। इण माथै गुलाबी रंग सूं भांत भांत रा चित्राम कोरीजै।
इण भांत चंग सगळां नै चंगा करै। मन गंगा करै। रंग रंगा करै। चंग री मस्ती में सगळा ई बावळा बण चंगभंग होय जावै। चंग रा धम्मीड़ा सुणतांई सगळा रा मन थिरकण लाग जावै। लुगायां घर गिरस्ती रा काम नै भूल'र चंग रंग में आपरा अंग अळसाय नांखै अर चंग माथै थाप पड़तांई गीतड़ा गूंजण लागै-

चंग रो घम्मीड़ो म्हैं तो रोटी खातां सुण्यो ओ
रोटी खातां पांतरगी में चाली आई सा।
चंग धीमो रे।

आज रो औखांणो

चंग टाळ भलां होळी कद मनाइजै?
चंग के बगैर भला होली कब मनाई जाती है?
जो एक दूसरे के पूरक होते हैं, उन्हीं का मेल हमेशा शोभनीय होता है।

राजस्थानी-लोकगीत- बाजरिया थारौ खिन्सडौ

बाजरिया थारो खीचड़ो लागै घणो स्वाद।
लागै घणो स्वाद, लागै घणो स्वाद।।

टीबां बायो बाजरो, रेळां में बाया मोठ,
गौरी ऊभी खेत में, आ कर घूंघट की ओट।
बाजरिया थारो खीचड़ो लागै घणो स्वाद।।

गेहूवां कै फलकां की म्हे तो, खावां जेटमजेट,
खीचड़ा कै दो चाटू सूं, भरज्या म्हां को पेट।
बाजरिया थारो खीचड़ो लागै घणो स्वाद।।

खदबद हींजै खीचड़ो, नै फदफद हींजै खाटो,
ल्या ए छोरी सोगर खातर, बाजरियै रो आटो।
बाजरिया थारो खीचड़ो लागै घणो स्वाद।।

घर आया जद पावणां, नै रांध्यो खीचड़ खाटो, खाटो,
इण खाटै नै देखनै बो आज जंवाई न्हाटो।
रै बाजरिया थारो खीचड़ो लागै घणो स्वाद।।

दोहा

खीचड़ै री जितरी महिमा करी जावै कम। पण आम बोलचाल में जिका औखांणा चलै बै इणनै हळको अर हीणो गिणावै। जदी तो कोई निरभागी आदमी सारू आ कहावत कैवै-

करमहीण किसनियो, जान कठै सूं जाय।
करमां लिखी खीचड़ी, खीर कठै सूं खाय।।

राजस्थानी-भाषा मे आडी

एक घरां घणा मेहमान  आया। मनवार होयी। बेळू, मतलब रात रा जीमण पछै पोढण री बेळ्यां आई। मांचा कमती पड़ग्या। दोय-दोय मेहमान भेळा सोवै तो एक मांचो बधै। न्यारा-न्यारा सोवै तो एक मेहमान  बधै। बताओ कित्ता मांचा अर कित्ता मेहमान हा ?

चुनाव सरपंच के

मैने पिछली बार सरपंच चुनाव जीतकर अपने गाँव व जोधपुर शहर  मे जमीन लेकर व कई लाख रूपये जमा किऐ।। आप सभी से निवेदन है ईस बार मुझे जीताए ताकि मै कुछ प्लाॅट और दिल्ली मे लेकर मेरे गाँव  व जोधपुर मे 4 मंजिला घर बना सकूॅ। आपका अपना जूझारू, कर्मठ, ईमानदार व विकास पुरूष उम्मीदवार ईमानदार  सरपंच ।। तय आपको करना है क्षेत्र वासियो आपको आपके उम्मीदवार का घर बनवाना है या अपने क्षेत्र का विकास।। बिको मत सही चुनो..

राजस्थानी भोजन दाल-बाटा

बहुत समय पहले  हुआ था  बाटी (रोठा)का 'आविष्कार'
बाटी! मारवाड़ का प्रसिद्ध भोजन है । कोई भी विशेष प्रोग्राम  इसके बगैर  नहीं होता है । कई घरों में तो छुट्टी के दिन बाटी बनना अनिवार्य है। नई बहुओं को भी पहले दिन ही परिवार के इस स्वादिष्ट नियम के बारे में बता दिया जाता है। हर घर की पसंद बाटी करीब तीन दिन तक खराब भी नहीं होती है। ऐसे में यात्रा के दौरान भी लोग इसे साथ लेकर जाना पसंद करते हैं। गांव में जहां चूल्हे पर भोजन बनता है, वहां रोटी बनने के बाद बचे हुए आटे की दो-तीन बाटी तो चलते-फिरते बन जाती है। स्वाद में यह बाटी जितनी जायकेदार होती है, इसका इतिहास भी उतना ही रोचक है। उज्जैन के कुछ पुराने और कुछ चटोरे लोगों से पूछपाछ के पता चला है कि बाटी का अविष्कार क्यों, कहाँ, कब और कैसे हुआ।
बाटी मूलत: राजस्थान का पारंपरिक व्यंजन हैै। इसका इतिहास करीब 1300 साल पुराना है। 8वीं सदी में राजस्थान में बप्पा रावल ने मेवाड़ राजवंश की शुरुआत की। बप्पा रावल को मेवाड़ राजवंश का संस्थापक भी कहा जाता है। इस समय राजपूत सरदार अपने राज्यों का विस्तार कर रहे थे। इसके लिए युद्ध भी होते थे। इस दौरान ही बाटी बनने की शुरुआत हुई। दरअसल युद्ध के समय हजारों सैनिकों के लिए भोजन का प्रबंध करना चुनौतीपूर्ण काम होता था। कई बार सैनिक भूखे ही रह जाते थे। ऐसे ही एक बार एक सैनिक ने सुबह रोटी के लिए आटा गूंथा, लेकिन रोटी बनने से पहले युद्ध की घड़ी आ गई और सैनिक आटे की लोइयां रेगिस्तान की तपती रेत पर छोड़कर रणभूमि में चले गए। शाम को जब वे लौटे तो लोइयां गर्म रेत में दब चुकी थी, जब उन्हें रेत से बाहर से निकाला तो दिनभर सूर्य और रेत की तपन से वे पूरी तरह सिंक चुकी थी। थककर चूर हो चुके सैनिकों ने इसे खाकर देखा तो यह बहुत स्वादिष्ट लगी। इसे पूरी सेना ने आपस में बाटकर खाया। बस यहीं इसका अविष्कार हुआ और नाम मिला बाटी। इसके बाद बाटी युद्ध के दौरान खाया जाने वाला पसंदीदा भोजन बन गया। अब रोज सुबह सैनिक आटे की गोलियां बनाकर रेत में दबाकर चले जाते और शाम को लौटकर उन्हें चटनी, अचार और रणभूमि में उपलब्ध ऊंटनी व बकरी के दूध से बने दही के साथ खाते। इस भोजन से उन्हें ऊर्जा भी मिलती और समय भी बचता। इसके बाद धीरे-धीरे यह पकवान पूरे राज्य में प्रसिद्ध हो गया और यह कंडों पर बनने लगा।
अकबर की रानी जोधाबाई के साथ बाटी मुगल साम्राज्य तक भी पहुंच गई। मुगल खानसामे बाटी को बाफकर (उबालकर) बनाने लगे। इसे नाम दिया बाफला। इसके बाद यह पकवान देशभर में प्रसिद्ध हुआ और आज भी है और कई तरीकों से बनाया जाता है।
अब बात करते हैं दाल की। दक्षिण के कुछ व्यापारी मेवाड़ में रहने आए तो उन्होंने बाटी को दाल के साथ चूरकर खाना शुरू किया। यह जायका प्रसिद्ध  हो गया और आज भी दाल बाटी का गठजोड़ बना हुआ है। उस दौरान पंचमेर दाल  खाई जाती थी। यह पांच तरह की दाल चना, मूंग, उड़द, तुअर और मसूर से मिलकर बनाई जाती थी। इसमें सरसो के तेल या घी में तेज मसालों का तड़का होता था।
अब चूरमा की बारी आती है। यह मीठा पकवान अनजाने में ही बन गया। दरअसल एक बार मेवाड़ के गुहिलोत कबीले के रसोइये के हाथ से छूटकर बाटियां गन्ने के रस में गिरा गई। इससे बाटी नरम हो गई और स्वादिष्ट भी। इसके बाद से इसे गन्ने के रस में डुबोकर बनाया जाना लगा। मिश्री, इलायची और ढेर सारा घी भी इसमें डलने लगी। बाटी को चूरकर बनाने के कारण इसका नाम चूरमा पड़ा। आजकल तो इसे बनाने के लिये कुकर का इस्तेमाल ही होता है लेकिन खै मे पके हुए  बाटे के जैसा  स्वादिष्ट कुकर मे पके हुए नही होते है