शनिवार, 22 सितंबर 2018

अपेक्षा ही दुख का कारण


* अपेक्षा ही दुख का कारण *
*किसी दिन एक मटका और गुलदस्ता साथ में खरीदा हो और घर में लाते ही 50 रूपये का मटका अगर फूट जाए तो हमे इस बात का दुख होता है, क्योंकि मटका इतनी जल्दी फूट जायेगा ऐसी हमे कल्पना भी नहीं थी पर गुलदस्ते के फूल जो 200 रूपये के है वो शाम तक मुरझा जाए तो भी हम दुखी नहीं होते क्योंकि ऐसा होने वाला ही है यह हमे पता ही था।*
*मटके की इतनी जल्दी फूटने की हमे अपेक्षा ही नहीं थी, तो फूटने पर दुख का कारण बना, पर फूलो से अपेक्षा नहीं थी इसलिये वे दुख का कारण नहीं बनें इसका मतलब साफ़ हे कि जिसके लिए जितनी अपेक्षा ज्यादा उसकी तरफ से उतना दुख ज्यादा और जिस के लिए जितनी अपेक्षा कम उस के लिए उतना ही दुख भी कम।*
*"ख़ुश रहें... स्वस्थ रहें... मस्त रहें...

आजकल की पढ़ाई

।। राम राम सा ।।

आज बच्चों कि इस एक शरारत ने यह एहसास करा दिया कि हमारे माता-पिता ने हमें कैसे बड़ा किया।
कुछ बातें तभी समझ में आती हैं जब वह हम से होकर गुजरती है। आजकल कोचिंग का इंजेक्शन लगा कर लौकी की तरह भावी इंजीनियर और डॉक्टर की पैदावार की जाती है। अब नेचुरल देसी नस्ल छोटी रह जाती है जो तनाव में आकर या तो मुरझा जाती है या बाजार में बिकने लायक ही नही रहती।
अब मैं आपको करीब  25 साल पहले की बात बताता  हूँ  जब सरकारी स्कूलों का दौर ही था। जब एक औसत लड़के को साइंस ना देकर स्कूल वाले खुद ही लड़के को भट्टी में झोकने से रोक देते थे। आर्ट्स और कामर्स देकर लड़कों को शिक्षक बाबू,पटवारी,नेता और व्यापारी बनाने की तरफ मोड़ देते थे मतलब साफ है कि पानी को छोटी-छोटी नहरो में छोड़ कर योग्यता के हिसाब से अलग अलग दिशाओ में मोड़ दो ताकि बाढ़ का खतरा ही पैदा ना हो।

उस समय शिक्षक लड़के के गलती करने पर उसको डंडे से पीट-पीटकर साक्षर बनाने पर अड़े रहते और तनाव झेलने के लिये मजबूत कर देते थे।पापा-मम्मी से शिकायत करो तो दो झापड़ माँ -बाप भी जड़ देते थे और गुरुजी से सुबह स्कूल आकर ये और कह जाते थे कि अगर नहीं पढ़े तो दो डंडे हमारी तरफ से भी लगाना आप । अब पक्ष और विपक्ष एक होता देख लड़का पिटने के बाद सीधा फील्ड में जाकर खेलकूद करके अपना तनाव कम कर लेता था।खेलते समय गिरता पड़ता और कभी-कभी छोटी-मोटी चोट भी लग जाती तो मिट्टी डाल कर चोट को सुखा देता,पर कभी तनाव में नहीं आता। दसवीं आते-आते लड़का लोहा बन जाता था। तनावमुक्त होकर मैदान में तैयार खड़ा हो जाता था।
हर तरह के तनाव को झेलने के लिए.........।

फिर कुछ वर्षो से आया कोचिंग और प्राईवेट स्कूलों का दौर यानी की शिक्षा स्कूल से निकल कर ब्रांडेड शोरुम में आ गई। शिक्षा सोफेस्टीकेटेड हो गई। बच्चे को गुलाब के फूल की तरह ट्रीट किया जाने लगा। मतलब बच्चा 50% लाएगा तो भी साइंस में ही पढ़ेगा। हमारा मुन्ना तो डॉक्टर ही बनेगा। हमारा बच्चा IIT से B.tech करेगा । शिक्षक अगर हल्के से भी मार दे तो पापा-मम्मी मानवाधिकार की किताब लेकर मीडिया वालों के साथ स्कूल पर चढ़ाई कर देते हैं कि हमारे मुन्ना को हाथ भी कैसे लगा दिया?मीडिया वाले शिक्षक के गले में माइक घुुसेड़ कर पूछने लग जाते हैं कि आप ऐसा कैसे कर सकते हैं?यहाँ से आपका बच्चा सॉफ्ट टॉय बन गया बिलकुल टेडी बियर की तरह। अब बच्चा स्कूल के बाद तीन-चार कोचिंग सेंटर में भी जाने लग गया। खेलकूद तो भूल ही गया। फलाने सर से छूटा तो ढिमाके सर की क्लास में पहुंच गया।

बचपन किताबों में उलझ गया और बच्चा कॉम्पटीशन के चक्रव्युह में ही उलझ गया बेचारा। क्यों भाई आपका मुन्ना केवल डॉक्टर और इंजीनियर ही क्यों बनेगा वो आर्टिस्ट,सिंगर,खिलाड़ी,किसान और दुकानदार से लेकर नेता और कारखाने का मालिक क्यों नहीं बनेगा। हजारों फील्ड हैं अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करने के वो क्यों ना चुनो। अभी कुछ दिनों पहले मेरे महंगे जूते थोड़े से फट गऐ पता किया एक लड़का अच्छी तरह से रिपेयर करता है कि ये पता ही नहीं चलता कि जूते रिपेयर भी हुए हैं । उसके पास गया तो उसने 200 रुपये मांगे रिपेयर करने के और कहा एक हफ्ते बाद मिलेगें जी। उस लड़के की आमदनी का हिसाब लगाया तो पता चला की लगभग एक लाख रुपये महीने कमाता है। यानी की पूरा बारह लाख पैकेज। वो तो कोटा नहीं गया। उसने अपनी योग्यता को हुनर में बदल दिया और अपने काम में मास्टर पीस बन गया।

कोई शेफ़ बन कर लाखों के पैकेज़ में फाइव स्टार होटल में नौकरी कर रहा है तो कोई हलवाई बन कर बड़े-बड़े इवेंट में खाना बना कर लाखों रुपये ले रहा है कोई डेयरी फार्म खोल कर लाखों कमा रहा है। कोई दुकान लगा कर लाखों कमा रहा है तो कोई कंस्ट्रक्शन के बड़े-बड़े ठेके ले रहा है। तो कोई फर्नीचर बनाने के ठेके ले रहा है। कोई रेस्टोरेंट खोल कर कमा रहा है तो कोई कबाड़े का माल खरीद कर ही जोधपुर जैसे शहर में ही लाखों कमा रहा है तो कोई सब्जी बेच कर भी 20-25 हजार महीने का कमा रहा है तो कोई चाय की रेहड़ी लगा कर ही 40-50 हजार महीने के कमा रहा है तो कोई हमारे यहाँ कचोरी-समोसे और पकोड़े-जलेबी बेच कर ही लाखों रुपये महीने के कमा रहा है। मतलब साफ है भैया कमा वो ही रहा है जिसने अपनी योग्यता और उस कार्य के प्रति अपनी रोचकता को हुनर में बदला और उस हुनर में मास्टर पीस बना। जरुरी नहीं है कि आप डॉक्टर और इंजीनियर ही बनें आप कुछ भी बन सकते हैं आपमें उस कार्य को करने का जुनून हो बस।

हाँ तो अभिभावको/प्रियजनों अपने बच्चों को टैडीबीयर नहीं बल्कि लोहा बनाओ लोहा। अपनी मर्जी की भट्टी में मत झोको उसको। उसे पानी की तरह नियंत्रित करके छोड़ो वो अपना रास्ता खुद बनाने लग जाएगा। पर बच्चों पर नियंत्रण जरुर रखो । अगर वो अनियंत्रित हुआ तो पानी की तरह आपके जीवन में बाढ़ ला देगा। कहने का मतलब ये है की शिक्षा को नेचुरल ही रहने दो,क्यों सिंथेटिक बना कर बच्चे का जीवन और अपनी खुशियों को बरबाद कर रहे हो।बच्चों को उनकी रूचि के अनुसार आगे बढ़ने में सहयोग दें। धन्यवाद।

शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

तालाब अब पहले जैसे नहीं रहे है ।

।।राम राम सा।।

मित्रो देवझूलनी ग्यारस और समंद हिलोरना एक त्योहार है।अब तालाब पर सभी  गाँव वालो को एकत्रित करने का बस येही एक पर्व बसा है । समंद हिलोराने के लिये भाई अपनी बहिन के घर आता है और तालाब पर अपनी रस्म अदा करता है पर अब गाँवो के तालाब ना होकर खड्डे मात्र रह गये है ना तो गाँव वाले ध्यान देते ना ही प्रसासन । लेकिन अब  कंहा झूलें "ठाकुरजी " और कैसे हिलोरें "समंद । कई गाँवो के नाडी तालाबों में तो पानी छोड़ कादा भी नहीं,,मगर परंपरा निभानी है तो पाइप से पानी डाल कर नहीं तो टैंकर डलवा कर भी ये रस्म अदा  तो करनी पडती  है,, नलकूप के नीचे झूलते ठाकुर जी और टखने तक कीचड़ में समंदर हिलाते भाई बहन,, भीड़ के बीच नजारे को मोबाइल से सोशल मीडिया पर लाइव चलाते युवा,,वाह भाई ,शानदार,नाइस, सुपर्ब के रिप्लाई लाइक कमेंट पाकर बड़े खुश होते है ,,,,आजकल का माहोल देख कर  हमे शर्म के साथ ग्लानि महसूस होती है,,सोच कर बड़ा दर्द होता है,,हम पढे लिखे डेढ हुशियार लोग कैसा विकास कर रहे हैं,,सजी धजी औरतें डेकोरेटिव कलश उठाए पंक्तिबद्ध गढ्ढे रुपी तालाब की परिक्रमा कर रही है,, कलरफुल नजारा बड़ा सुंदर है दिखावा बहुत है, खर्चा हजारों का कर रहे लेकिन परम्परा क्यों शुरू हुई, क्या महत्व है इसको कोई समझना नहीं चाहता,,बस परम्परा निभानी है, फॉरमल्टी पूरी  कर दी जाती है,,हमारे दूरदर्शी बुजुर्गों द्वारा हर परिवार के लिए अनिवार्य ये समंद परम्परा इसलिए शुरू की गई कि हम नाडी तालाबों की उपयोगिता समझें,,कितनी मेहनत से उन्होंने हाथों से खुदाई कर हर गाँव हर कांकङ में तालाब खोदे,, परंपरा के माध्यम से आने वाली  पीढ़ी जलस्रोतों से जुड़ी रहे इसलिए त्यौहार का रूप दिया। जब हम गायो को पानी पिलाने के लिये और नहाने व पीने का पानी  लेने दुसरे  गाँव जाते थे जो तीन किलोमीटर दूर था तब घर पर आकर कभी थकान के बारे मे बोलते थे तो दादाजी पानी का महत्व बताते थे की भाई हम 15 किलोमीटर से पानी लाकर पीते थे और औरों को भी पिला देते थे कोई टंकर या सीमेन्ट के टांके नही थे नहाते तो कभी कभी  ही थे और नहाने व कपड़ा धोने के बाद भी उस पानी को
बचाकर  कच्ची दिवारो की गार लीपने या कोई वृक्ष मे डालते थे एक बूँद भर पानी को भी व्यर्थ नही करते थे। लेकिन अब क्या ? पानी कितना भी व्यर्थ बहे कीसी को परवाह नही है ।
नहर  का पानी क्या आया,, हमने तो दो दशक के अंदर अंदर ही सब बर्बाद कर दिया,, कुछ लालची लोगों की वजह से अन्धाधुन्द  खुदाई, अवैध कब्जों ने आगोर तो समाजो पूरी  खत्म कर दी,,पूरे गांव की प्यास बुझाने वाले तालाब खुद ही प्यासे मर ग‌ए, मनरेगा के भी करोड़ों पी ग‌ए,, नतीजा  क्या है आप देख ही रहे है बरसात के दिनो  मे गाँवों के छोटे  बड़े  सब तालाब भर जाते थे अब तालाब के आगोर की सुध लेने वाले कोई नही है आधे से ज्यादा ओरण पर चन्द लालसी लोगो ने कब्जा कर रखा है  ,लेकिन लोग अपनी गलती स्वीकार करने की बजाय दोष भी भगवान को ही देते है ठाकुर जी मेह नी बरसावे,, सरकार को भी अलग से कोसेन्गे ,,अरे कम ज्यादा कितना भी बरसे सहेजने की क्षमता कंहा है हमारे पास ,तालाब को तो गलत तरीके से खोद खोद कर बुरा हाल कर दिया है ।
,,आज हम जो टूंटी के पानी के भरोसे इन तालाबो को घंटे मार रहे हैं ना,,अगर एक हफ्ते किसी कारणवश नल बंद हो जाए तो सबकी अक्ल ठिकाने आ जाएगी । कि हम कितने पानी में है,,अगर अब भी हमें अक्ल नहीं आई तो पूरी संभावना है कि कुछ सालों में ही पानी की भयंकर तंगी का सामना करना पड़ सकता है। अभी जो हम  बाथरूम में शॉवर लगा कर खड़े खड़े नहा रहे  हैं वो भी तरस जाएंगे खड़े खड़े नहाने के लिये
अब कोई उपाय  नही बचा है ।गाँव मे खरी कहने वाला कोई नही है तालाब के पानी की जरुरत सिर्फ जानवरो मवेसियो के अलावा किसी को नही है ।मेरा तो गाँव वालों से कहना है कि  अनुचित स्वार्थ छोड़ नाडियों की अवैध खुदाई बंद की जाए  गौसर भूमि पर कब्जा हटाया जाये और जरूरत के हिसाब से करनी भी पड़े तो सोच समझ कर पूरी कीमत वसूल कर वो भी गांव विकास फंड में जमा हो,, जिम्मेदारी से साल में एक बार बारिश से पहले सभी गांव वासी अभियान चला कर तालाब में पानी की आवक के अवरोध हटाए जाएं,, सरकार की ओर से जो भी योजनाएं आती है जो फंड आता है उसका पूरा उपयोग हो,,नेताओं और समाजसेवकों से भी निवेदन, सिर्फ पावड़ी गेन्ती तगारी हाथ मे लेकर  फोटू बाजी कर अखबार में नाम पढ खुश होने की बजाय वास्तविक, कोई ठोस तरीका निकालें,,ग्राम सभा में बात करें, सभी ग्रामवासी जुड़ें,,ताकि नौबत आने से पहले ही नजारा पहले जैसा बना रहे,, जितना हो सके उतना पानी तो इक्कठा हो,,सोचें, समझें, चिंतन करें,, और करना ही पड़ेगा,, क्योंकि  ये काम हमें आने वाली पीढ़ियों के लिए नहीं अपने लिए ही करना है।
गुमनाराम पटेल सिनली 


आज का नये दौर मे मोबाइल का महत्त्व

राम राम सा

आज के इस दौर में तकनीक के बिना जीवन सोचने में भी ऐसा लगता है मानो यह कोई असंभव सी बात हो, दिन प्रतिदिन हम तकनीक पर कितने निर्भर हो गए हैं कि उसका उपयोग करना हमारे लिए सांस लेने जितना ज़रूरी हो गया है। गैरों की तो मैं क्या बात करूँ, मेरा ही जीवन बिना किसी तकनीकी साधन के नहीं चलता क्यूंकि आज की जीवन शैली ही ऐसी हो गयी है कि हर छोटी बड़ी चीज़ किसी न किसी ऐसे प्रसाधन से जुड़ी है जो तकनीक के माध्यम से चलता है। घर की छोटी-मोटी जरूरतों से लेकर मनोरंजन और अहम जरूरतों की पूर्ति तक सब से पहले कोई न कोई तकनीकी साधन ही काम आता है। जैसे रसोई में मिक्सी,टोस्टर, माइक्रोवेव, इंडकशन चूल्हा, रसोई से बाहर निकलो तो सर्वप्रथम मोबाइल, टीवी, फ्रिज, सभी कुछ ज़िंदगी का इतना अहम हिस्सा बन गया है कि इन में से यदि एक भी चीज़ काम न करे तो ऐसा लगता है जैसे जीवन रुक सा गया है।

जिसमें सब से अत्यधिक आवश्यक है मोबाइल और कुछ काम करे या न करे किन्तु मोबाइल का काम करना सारी दुनिया के चलते रहने का सबूत है। मोबाइल ठीक तरह से काम कर रहा है अर्थात हम ज़िंदा है और यदि उसे जरा सा भी कुछ हुआ है तो मानो हम बीमार है और यदि पूरी तरह ही खराब हो गया है तब तो समझो ऐसा लगता है न कि हम मर ही गए हों जैसे, डॉक्टर ढूँढने से लेकर ख़रीददारी करने तक सब चीज़ के लिए मोबाइल का साथ रहना बहुत ज़रूरी है और अब तो लिखने पढ़ने से लेकर मनोरंजन तक के लिए भी मोबाइल होना ही चाहिए। अब न टीवी में मज़ा आता है, न रेडियो पर, न सिनेमा हाल में, सारी दुनिया सिमटकर मोबाइल में जो आ गयी है। रसोई में भी मोबाइल चाहिए क्यों ? क्यूंकि कुछ नया बनाना है या कोई पुरानी चीज़ भूल गए हैं तो वीडियो पर देखने के लिए मोबाइल साथ होना चाहिए न भाई...!

फिर हाथ के नाखून या मेनीक्यौर खराब नहीं होना चाहिए ना...तो फूड प्रोसेसर भी चाहिए, नहीं तो कौन हाथ से आटा गूँदे सब नेलपोलिश खराब हो जाती है। अपने यहाँ तो फिर भी लोग अब भी हाथ से काम कर लेते हैं। लेकिन विदेशों में तो अब फ़्रोजन रोटियों का चलन है, लाओ तवे पर गरम करो और खा लो न आटा गूँदने की कोई दिक्कत न एक-एक रोटी बनाने की कोई टेंशन। अब देख लीजिये महिलाओं का भी सर्वाधिक समय मोबाइल पर ही व्यतीत होता है। फिर चाहे बात करना हो या वीडियो देखकर कुछ सीखना हो या कुछ ढूँढना हो, यहाँ तक की बच्चों की पढ़ाई भी अब तो वीडियो पर उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त आजकल सब आराम पसंद भी हो गए हैं, तो सब्जी भाजी की खरीद फ़रोख्त हो या घर के लिए किराने का सामान या फिर कपड़े ही क्यूँ न खरीदने हो सब कुछ मोबाइल से ही तो होता है।

बाकी संसाधनों के लिए तो अन्य उपाय भी मिल जाते हैं लेकिन मोबाइल के लिए कोई और साधन नहीं मिलता कहने को एसटीडी/पीसीओ (STD PCO) बूथ अब भी हैं, लेकिन फिर भी जब तक कोई आपातकालीन समस्या न हो, कौन जाता है वहाँ उस से कॉल करने।
“हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी”
जिसे सुनकर मुझे लग रहा है कि उस समय में ही लोगों को भीड़ में भी तन्हाइयों का एहसास होने लगा था, तो फिर आजकल की तो बात ही क्या है। आजकल तो संगी साथी, दोस्त यार, नाते रिश्तेदार, साथ होते हुए भी लोग तन्हा रहना ही ज्यादा पसंद करते हैं। एक वह ज़माना था जब सयुंक्त परिवार हुआ करते थे और लोग एकल ज़िंदगी की कल्पना करते हुए भी घबराते थे। आज ठीक इस का उल्टा है, आज लोग साथ रहने से कतराते हैं। ज़िंदगी भर का साथ तो छोड़िए, आज तो घंटे दो घंटे भी बिना मोबाइल के लोग एक दूजे के साथ समय नहीं बिता पाते या यह कहना ज्यादा ठीक होगा शायद कि बिता तो सकते हैं, परंतु बिताना नहीं चाहते। अभी मेरे सामने का नज़ारा ही ऐसा है कि चार दोस्त एक साथ एक कॉफी शॉप में आते हैं और चारों अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त हैं क्या फायदा है ऐसे साथ घूमने फिरने का राम ही जाने।

  

यह सब देखकर लगता है अब तो दुनिया का सबसे सुंदर रिश्ता दोस्ती भी भावनात्मक ना रहते हुए दिखावे का पर्याय बन गया है। तकनीकी संसाधनों के साथ तेज़ी से बदलती ज़िंदगी ने जहाँ एक ओर लोग का जीवन सरल बनाया है वही दूसरी ओर उतनी ही तेज़ी से लोगों के मानसिक और आर्थिक स्तर पर भी गहरा प्रभाव छोड़ा है। जिसके आधीन होकर नित नए-नए साधनों के उपयोग के लालच में लोग बैंक द्वारा उधार ली गयी मोटी रकम के कर्जदार बन गए हैं और बैंक कों की चाँदी हो गयी है। शायद इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मोबाइल पर उपलब्ध सीधा बैंक से पैसा देने वाली सुविधा के चलते जब ऑनलाइन पैसा चला जाता है, तब वह हाथ से जाता हुआ दिखाई नहीं देता। इसलिए उस समय महसूस नहीं होता कि आपने ज़रा सी देर में कितना बड़ी धन राशि खर्च कर दी। फिर जब लम्बा बिल आता है तब आँखें खुलती है और तब तक बहुत देर हो चुकी होती है या फिर थोड़े दिन बाद जीवन उसी ढर्रे पर आ जाता है।

इस तरह बच्चों से लेकर बड़ों तक और बड़ों से लेकर बुज़ुर्गों तक हम सभी का जीवन मोबाइल पर कुछ इस तरह निर्भर हो गया है कि अब तो ऐसा लगता है मोबाइल के बिना जीवन संभव ही नहीं है। 

परिवर्तन आज और पहले

यूँ देखा जाये तो परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। समय के साथ हर चीज़ में परिवर्तन आ जाता है । फिर चाहे वह कोई इंसान हो या अनुशासन बदलाव तो आखिर बदलाव ही है। अपने जमाने की बात सोचो तो लगता है, हम तो बहुत कठोर अनुशासन में पले बढ़े लोग हैं। फिर चाहे वह स्कूल का मामला हो या घर का कोई भी ऐसा कदम जो सार्वजनिक रूप से अनुचित माना जाता है, उसे उठाने से पहले हम सो बार सोचते होंगे कि हम जो करने जा रहे हैं वह कितना सही है और कितना गलत। उसके बाद यदि पकड़े गए तो अंजाम क्या होगा। किन्तु आज की पीढ़ी को देखते हुए लगता है कि वह हमारी तुलना में काफी निडर है। उन्हें जैसे अंजाम का कोई डर ही नहीं होता कि यदि पकड़े गए तो क्या होगा। 

यूँ देखा जाए तो अब स्कूलों में भी अनुशासन उतना सख्त नहीं रहा, जितना अपने समय हुआ करता था नहीं ? यहाँ तक कि मैंने एक सरल छात्र  होने के पश्चयात अपने अध्यापकों से चपत से लेकर डस्टर, स्केल, आदि सभी चीजों से मार खाई है लड़कों कि तो बात ही क्या और एक आज का ज़माना है आज के बच्चे अपने अध्यापकों से ज़रा नहीं डरते। आज के ज़माने में कोई एक आद अध्यापक या अध्यापिका जी ही ऐसे होते होंगे जिनसे बच्चे डरते हों। एक हमारा ज़माना था, हमें तो एक आद को छोड़कर सभी से बहुत डर लगा करता था। 

लेकिन जब बात बच्चों की परवरिश की हो तो, अनुशासन की परिभाषा अनुभवों के आधार पर गडमड हो ही जाती है और हम असमंजस में उलझ कर रह जाते हैं कि अनुशासन में रखकर जो हमारे माता पिता ने हमारे साथ किया वह सही था या आज हम जो अपने बच्चों के साथ कर रहे हैं वह सही है। क्योंकि जब हम एक अभिभावक बनकर सोचते हैं तो तुलना अपने बचपन से ही करते हैं। लेकिन निर्णय आज के समय अनुसार लेना पड़ता है। फिर साथ ही साथ रह रहकर मन में यह विचार भी आता है कि क्या हमारी गलतियों पर हमारे माता-पिता भी इतनी ही जल्दी उत्तेजित हो जाया करते थे, जितना आज के समय में हम हो जाते हैं। या यह सोचकर कि बच्चे हैं बच्चे तो गलती करेंगे ही, नहीं तो सीखेंगे कैसे ऐसा सोचकर कई गलतियों पर ध्यान भी नहीं देते थे। नहीं ? दूसरी और एक हम हैं जो बच्चों की ज़रा-ज़रा सी गलतियों पर इतने चिंतित हो जाते हैं कि लगता है हर विषय पर उनसे बात करो बात -बात पर उन्हें सही गलत समझाओ।

साधु किसे कहते है ।

*साधु किसे कहते है ।*

*    जिसके पेरौ मे जूता नही
      सिर पर छाता नही
      बेंक  मे खाता नही
      परिवार से नाता नही
      उसे कहते है  साधु ।

*     जिसके तन पे कपडा नही
       वचन मे लफड़ा नही
       मन मे क्षगडा नही
       उसे कहते है साधु ।

*      जिसका कोई घर नही
        किसी बात का डर नही
        दुनिया का असर नही
        उसे कहते है  साधु ।

*       जिसके पास बीबी नही
        साथ टीवी नही
        अमीरी गरीबी नही
        नाश्ते मे जलेबी नही
        उसे कहते है  साधु ।

*       जो कचचे पानी को छूता नही 
         बिसतर पर सोता नही
         होटेल मे खाता नही
         उसे कहते है साधु ।

*        जिसे नाई की जररूत नही
          जिसे तेली की जररूत नही
          जिसे सुनार  की जररूत नही
          जिसे लुहार  की जररूत नही
          जिसे दर्जी  की जररूत नही
          जिसे व्यापार  की जररूत नही
          जिसे  धोबी की जररूत नही
          फिर भी सबको धोता है
          उसे कहते है  साधु ।

*        बाकी  तो सब पाखण्ड है

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

मेरे गाँव मे देवझुलणी एकादशी 2018

।। राम राम सा ।।

जयश्री कृष्णा





आज हमारे गावँ सिनली मे परंपरा अनुसार देव झुलनी पर्व धूमधाम के साथ मनाया गया | ग्रामीणों ने ठाकुर जी को श्रृंगारित करके  रेवाडी मे विराजमान करके गाँव  तालाब पर ढौल धमाके  के साथ रवाना किया और सन्त हरीराम जी की वगैसी से भी ठाकुरजी की रेवाडी को सजाकर तालाब पर लाया गया जिसमे सिनली मठाधीश  महन्त और गाँव के सभी लोग मौजूद रहे । हर वर्ष की तरह सेकडो की संख्या मे लोगो ने जयकारो से पुरे गाँव को गूँजा दिया
"हाथी घोड़ा पालकी,,
" जय कन्हैया लाल की,
 के नारे लगते रहे
 गांव में कृष्ण गोपाल को पुष्पों से श्रृंगारित किया गया । भगवान को रेवाड़ी में विराजमान करके गाँव के तालाब पर ढोल धमाके के साथ जुलुश के रूप में ले जाया गया, तालाब पर स्नान करा के मंगल आरती कर पुनः रेवाड़ी को मन्दिर परिसर में लाकर कृष्ण गोपाल का अभिषेक किया और भगवान को भोग लगाकर आरती की गयी।
देव झुलनी ऐकादशी के पर्व पर गांव के भत्तों रेवाडी के दर्शन कर खुशहाली की कामनाये की  सैकड़ो सख्या मे भक्त उपस्थित रहे । ईस वर्ष बरसात की कमी के रहते  तालाब मे पानी बहुत कम था सभी भक्तो ने अगले वर्ष के लिये  अच्छी बरसात की मन्नते  मांगी और साथ मे आज तालाब पर  समन्द हिलौराने वाले भाई  भी काफी संख्या मे आये उन्होने भी अपनी रस्म अदा की गई।

गुमना राम पटेल सिनली