शनिवार, 31 अगस्त 2019

अनमोल वचन

*🍃🌻पिता (Papa)🌻🍃* 

•पिता की *सख्ती को बर्दाशत* करो, ताकि काबिल बन सको,
•पिता की *बातें गौर से सुनो*, ताकि दुसरो की न सुननी पड़े,
•पिता के सामने *ऊंचा मत बोलो* ,वरना भगवान तुमको नीचा कर देगा,
•पिता का *सम्मान करो,* ताकि तुम्हारी संतान तुम्हारा सम्मान करे,
•पिता की *इज्जत करो,* ताकि इससे फायदा उठा सको,
•पिता का *हुक्म मानो* ताकि खुशहाल रह सको,
•पिता के सामने *नजरे झुका कर रखो*, ताकि भगवान तुमको दुनियां मे आगे करे,
• *पिता एक किताब है* जिसपर अनुभव लिखा जाता है,
• *पिता के आंसु तुम्हारे सामने न गिरे*, वरना भगवान तुम्हे दुनिया  से गिरा देगा,

*पिता एक ऐसी हस्ती है ...!!!!माँ का मुकाम तो बेशक़ अपनी जगह है ! पर पिता का भी कुछ कम नही, माँ के कदमों मे स्वर्ग है पर पिता स्वर्ग का दरवाजा है, अगर दरवाज़ा ना ख़ुला तो अंदर कैसे जाओगे ?*
जो गरमी हो या सर्दी अपने बच्चों की रोज़ी रोटी की फ़िक्र में परेशान रहता है, *ना कोई पिता के जैसा प्यार दे सकता है ना कर सकता है, अपने बच्चों से !!*
*याद रख़े सूरज गर्म ज़रूर होता है मगर डूब जाए तो अंधेरा छा जाता है, !!*
आओ आज़ सब मिलकर उस अज़ीम हस्ती के लिए  *प्रार्थना करें ..*
*हे भगवान मेरे पिता को अच्छी सेहत ओर तंदूरस्ती देना। उनकी तमाम परेशानी को दूर कर, और उन्हें हमेंशा हमारे लिए खुश रख़ना।*

*🙏इस संदेश को सभी  बच्चों तक पहुंचाया जाए🙏*

विलुप्त होती बैलगाड़ी

 मित्रो आज हम बैलगाड़ी के बारे मे कुछ बताने जा रहे है । बचपन मे हमने भी बैलगाड़ी चलाई  थी । और उसका नतीजा आज भी है  सामने के एक ऊपर का व एक निचे का दो दाँत टुट गये थे जब मै 6वी कक्षा मे पढता था । दीपावली के कुछ दिन बाद लाटा से चारा घर मे ला रहें थे तो चारा ज्यादा भरा होने के कारण खाली करते समय बैलगाड़ी को ऊपर करते हुये कन्ट्रोल नही कर पाया और बैलगाड़ी आगे से बैलो पीठ पर निचे गिर जाने से बैल भड़क कर मेरे ऊपर गिर गये और मुहँ पर चोट लग गयी। 
बैलगाड़ी पर बैठने का बहुत शौक था  चाचाजी के साथ मे तालाब पर पानी के लिये व खेत मे बाजरा , मूँग आदि लाने के लिये साथ मे जरुर जाते थे । मेरे  दादाजी  कहते थे कि पुराने समय  में  आवागमन  मे हमारे लिये बैलगाड़ी ही  एक साधन था । शादी के समय बैलो व बैलगाड़ी को बढीया से सजाते थे। शादीयो मे बैलगाड़ीयो की रेस के बारे मे भी कहते थे कि अब ऐसे नजारे देखने को कभी नही मिलेंगे। बैलगाड़ी के बाद  हमारी शादी मे तो ट्रेकटर का जमाना आ गया था।  लेकिन आजकल के समय  में बारातों में अगर कारो का काफिला न दिखे तो तौहीन समझी जाती है
 बैलगाड़ीया तो  बारात से गायब  ही नहीं,
 बल्कि  गाँवो  में दिखना भी बंद हो गई  है।
बैलगाड़ी पुराने समय में खेतीबाड़ी और कहीं आने जाने के लिए खूब प्रयोग की 
जाती थी। लेकिन जब से खेती के काम के लिए ट्रैक्टर का उपयोग होने के बाद से जैसे बैलगाड़ी  का पतन ही
 शुरू हो गया था । गाँव मेंधीरे-धीरे लोगों ने जानवर पालने कम कर दिए,जिसके साथ-साथ बैलगाडिय़ों
 को खींचने वाले बैल भी कम होते  गए। और बैलगाड़ीया तो फोटो मे ही देख सकेंगे जिनके पास जो पुरानी बैलगाड़ी  थीं उन्हीं 
को ठोकपीट कर काम चलाते रहे।  आज बैलगाड़ी बनाने वाले भी नही रहे है अब तो देखने को भी नही मिलती है  गाँवों में लोग खेती का सारा काम ट्रैक्टर 
से कराने लगे हैं।"अब तो इन बैलगाड़ी की जरुरत भी नही रही है।
पहले सामान ढोने के लिए बैलगाडिय़ों का
खूब इस्तेमाल होता था।
दादाजी कहते थे कि  गाँव से बाजारों 
तक अनाज लाना होया फिर मंडी तक 
ले जाना हो , एक गाँव से करीबन
10 से 15 बैलगाडिय़ां एक साथ एक 
कतार में निकलती थी।यह सफर चार से पांच दिन तक चलता था।रास्ते में रुक कर खाना-पीना खाने
 के बाद सफर फिर शुरू हो जाता था । लेकिन आज माल ढोने के लिए छोटे वाहन टेम्पो पिकप, मेटाडोर आदि
 आ जाने से भी बैलगाडिय़ों की जरुरत भी
 नही रही  है।   "पहले और आज में बहुत फर्क  आ गया है। आज के दौर में पिकप और अन्य छोटे 
टेम्पो माल ढोने वाले वाहनों के ज्यादा
चलने से बैलगाडिय़ों का चलना
 कम बन्द हो गया है। जितना समय बैलगाड़ी से जाने पर चार पांच दिन लगते है उतनी दूर तो ये फर्राटा भरती गाडिय़ां कुछ ही घंटो  में पहुंच  जाती है । इसी  वजह से हमलोगों को आज कल ये बैलगाड़ीया नजर नही आ रही है ।

विलुप्त होती हुई मथाणी

मथानी  (झैरणा)

मथानी लकड़ी का एक घरेलू उपकरण है। लोग इनको कई आकार मे बनवाते है । आजकल बिलौवणे की प्रथा खत्म तो नही हुई है लेकिन अब ज्यादतर  बिजली उपकरण से ही बिलौने किये जाते है । मथानी  का प्रयोग दही बिलौने व मथने और मिलाने के किया जाता है। इसे हमारे यहाँ झैरणा भी कहते  हैं। एकदम छोटी मथाणी तो हाथ से चलाने वाली होती है। लेकिन बड़ी  वाली मथाणी को रस्सी लपेट कर दोनो हाथो से बारी बारी खिन्सा जाता है।  एक जमाना था जब हर घर-घर में  पशु थे।  और सभी के घरों मे  सुबह भोर होते ही एक सुन्दर आवाज के साथ  दही से भरी हंडिया मथी जाती थी। बड़ी लकड़ी से बनी मथाणी  मक्खन मथने के लिए उपयोग की जाती थी 
आज भी छोटी मथानी का प्रयोग लस्सी बनाने, और मठा (छाछ) आदि निकालने के लिए किया जाता है। आजकल तो  बिजली उपकरण का प्रयोग किया जाता है। अभी तक मै ठौस  कारण तो जान  नही पाया हूँ।  पर हमारे यहाँ शादी के समय वर के साम्भेला करते समय थाली मे  मथाणी का उपयोग करते हुये देखते है । कहते हैकि जब  सीता जी  की शादी हुई थी तो  भगवान श्री राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ था तब भगवान श्री राम ने अपना समय नीमसार में व्‍यतीत किया था वहाँ पर इस मथानी का प्रयोग माता सीता करती थीं। साथ ही कहावत है कि जो व्‍यक्ति अभिमान से वशीभूत होकर कहता है कि मै इस मथानी को उठा लूँगा वह व्‍यक्ति कदापि मथानी को हिला भी नहीं सकता है परन्‍तु जो व्‍यक्ति श्रद्वा भाव से मथानी को उठाने से पूर्व मथानी के चरण छूकर भक्ति भाव से उठाता है तो वह इसे बच्‍चे के खिलौनों की तरह उठा सकता है।
इनके पीछे और भी कुछ रहस्य होन्गे लेकिन मुझे तो इसके बारे मे इतना ही पता है ।
एक बात तो पक्की है कि  बाकि औजारो की तरह बिलोणा भी स्वास्थ्य के लिये बहुत उपयोगी था । लेकिन इनकी जगह अब बिजली उपकरणों ने ले ली है ।   

विलुप्त होते चरखे

चरखा

मित्रो आजकल जो हम कपड़े पहनते है। वो तो लूम की मशीनो से तैयार किया जाता है  लेकिन कुछ ही वर्ष पहले हाथो से सुत कातकर कपड़े तैयार किये जाते थे जो एक चरखा (अटीया) द्वारा रुई से कपड़ा बनाया जाता था और उसे हम आज भी खादी कहते है ।  चरखा एक हस्तचालित यंत्र है जिससे सूत तैयार किया जाता है। चरखा  की शुरुआत कब तथा कैसे हुई ये तो पता नहीं है ,लेकिन  अंग्रेज़ों के भारत आने से पहले भारत भर में चरखे और करघे का प्रचलन था। हमारे देश में  1500 ई. तक खादी और हस्तकला उद्योग पूरी तरह विकसित था।
भारत में चरखे का इतिहास बहुत प्राचीन होते हुए भी इसमें सुधार का काम महात्मा गांधी के जीवनकाल का ही हुआ था
मेरे घर पर भी तीन चरखे थे । मेरे बचपन के समय मेरी दादी व भुआ  भेड़ की ऊन कातती थी । जिससे सर्दियो मे ओढने के पटुडा बनाया जाता था ।  अब दो चरखे तो उदाई की भेंट चढ़ गये है।  सब खड़े चरखे ही थे। खड़े चरखे में एक बैठक, दो खंभे, एक फरई । और आठ पंक्तियों का दोनो तरफ चक्र होता है । मैने जितने भी चरखे देखे हैं जिसमे सब अलग अलग आकार के खड़े चरखे  हैं। चरखे का व्यास लगभग 12 इंच से 24 इंच तक का व और ताकला की लंबाई अठारह उन्नीस  इंच तक होती है।आजकल चरखे  तो विलुप्त हो चुके है । सिर्फ फोटो देखकर ही रह जाते है ।  जब हम ये ताकला व चरखों को देखते हैं तो आश्चर्य होता है कि पहले के ज़माने के लोग कितने मेहनती थे। 
चरखे पर  एक भजन भी सुनते है कि चरखा रो भेद बता दे ए कातण  वाली नार

विलुप्त होता हुआ ऊखल

ओखली मुसल

मित्रो आजकल पिसने व कूटने के लिये बहुत सारी मशीनरी आ गई है । लेकिन आज से कुछ ही वर्ष पहले हमारे गाँवो मे ओखली मूसल  व खरल ही पिसने व कूटने का मुख्य औजार था।  ओखली धान आदि कूटने के लिए काठ या पत्थर का एक गहरा पात्र होता है।ओखली में धान आदि कूटने के लिए मूसल का प्रयोग होता है।ओखली हर परिवार, हर घर के आँगन में होती थी अब तो कुछ ही घर होंगे जिनके आँगन इससे सजे होंगे ओखली का हमारे जीवन में आदि काल से बहुत ही महत्त्व रहा है।जब चक्की नहीं हुआ करती थी तो धान, बाजरे की घाट, मसाले कुछ भी जैसे पाउडर बनाना या जव ज्वार का छिलका निकलना आदि काम इसी के द्वारा संपन होते थे।ओखली के ऊपर राजस्थानी भाषा मे कुछ कहावतें भी मशहूर है जैसे- ऊखल मे माथौ दियो तो सोम्बेला सूँ काइँ डरणौ यानी ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डरना
मित्रो मूसल का प्रयोग प्राय: किसी चीज़ को, जो ओखली में डाली जाती है, उसे तोड़ने या पीसने में किया जाता है। ओखली एक मजबूत कटोरे के आकार की होती है, जबकि मूसल गदा के आकार जैसी होती है। ओखली और मूसल दोनों का निर्माण मजबूत लकड़ी या फिर पत्थर से किया जाता है।

जिस चीज़ को तोड़ना या पीसना होता है, उसे ओखली में डाला जाता है। बाद में उसके ऊपर मूसल के एक के बाद एक प्रहार किए जाते हैं। इस प्रकार उस चीज़ को ओखली में रौंदकर बारीक पीस लिया जाता है।मूसल के प्रयोग से चटनी और औषधि आदि बड़ी आसानी से ओखली में पीसे जा सकते हैं।कई ओखलियाँ आकार में काफ़ी बड़ी होती हैं। इनके लिए गृहणियाँ प्राय: बड़े आकार और वजन में भारी मूसल का प्रयोग करती हैं। मैने कई जगह पढ़ा है सुना भी है कि प्राचीन संस्कृतियों में तो ओखली और मूसल को स्वास्थ्य का बहुत बड़ा आधार माना जाता था । हर घर के आंगन मे ऊखल जरूर दिखता था। अब तो गाँवो मे  किसी किसी घरो मे ही देखते है । मेरे घर पर भी दो पुराने ऊखल थे जो घिस जाने के बाद निचे छेद हो गया था उसको भेन्स बाँधने के काम मे लेते हैं।  ओखली की जगह पर अब मिक्सी आ गई है ।

राजस्थानी लोकगीत इन नामो से गाये जाते है ।

राजस्थान के लोकगीत

1. मोरिया - इस लोकगीत में ऐसी लड़की की व्यथा है, जिसका विवाह संबंध निश्चित हो गया है किन्तु विवाह होने में देरी है।

2. औल्यू - ओल्यू का मतलब 'याद आना' है। दाम्पत्य प्रेम से परिपूर्ण विलापयुक्त लयबद्ध गीत जिसमें पति के लिए भंवरजी, कँवरजी का तथा पत्नी के लिए मरवण व गौरी का प्रयोग किया गया है।

3. घूमर - गणगौर अथवा तीज त्यौहारों के अवसर पर स्त्रियों द्वारा घूमर नृत्य के साथ गाया जाने वाला गीत है, जिसके माध्यम से नायिका अपने प्रियतम से श्रृंगारिक साधनों की मांग करती है।

4. गोरबंध - गोरबंध, ऊंट के गले का आभूषण है। मारवाड़ तथा शेखावटी क्षेत्र में इस आभूषण पर गीत गोरबंध नखरालो गीत गाया जाता है। इस गीत से ऊँट के शृंगार का वर्णन मिलता है।

5.कुरजां - यह लोकप्रिय गीत में कुरजां पक्षी को संबोधित करते हुए विरहणियों द्वारा अपने प्रियतम की याद में गाया जाता है, जिसमें नायिका अपने परदेश स्थित पति के लिए कुरजां को सन्देश देने का कहती है।

6.झोरावा - जैसलमेर क्षेत्र का लोकप्रिय गीत जो पत्नी अपने पति के वियोग में गाती है।

7. कागा - कौवे का घर की छत पर आना मेहमान आने का शगुन माना जाता है। कौवे को संबोधित करके प्रेयसी अपने प्रिय के आने का शगुन मानती है और कौवे को लालच देकर उड़ने की कहती है।

8.कांगसियों - यह राजस्थान का एक लोकप्रिय श्रृंगारिक गीत है।

9. सुवटिया - उत्तरी मेवाड़ में भील जाति की स्त्रियां पति -वियोग में तोते (सूए) को संबोधित करते हुए यह गीत गाती है।

10.जीरो - इस लोकप्रिय गीत में स्त्री अपने पति से जीरा न बोने का अनुनय-विनय करती है।

11.लांगुरिया - करौली की कैला देवी की आराधना में गाये जाने वाले भक्तिगीत लांगुरिया कहलाते हैं।

12. मूमल - यह जैसलमेर क्षेत्र का लोकप्रिय गीत है, जिसमें लोद्रवा की राजकुमारी मूमल के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। यह एक श्रृंगारिक गीत है।

13.पावणा - विवाह के पश्चात् दामाद के ससुराल जाने पर भोजन के समय अथवा भोजन के उपरान्त स्त्रियों द्वारा गया जाने वाला गीत है।

14. सिठणें - यह विवाह के उपलक्ष्य में गाया जाने वाला गाली गीत है जो विवाह के समय स्त्रियां हंसी-मजाक के उद्देश्य से समधी और उसके अन्य सम्बन्धियों को संबोधित करते हुए गाती है।

15. हिचकी - मेवात क्षेत्र अथवा अलवर क्षेत्र का लोकप्रिय गीत दाम्पत्य प्रेम से परिपूर्ण जिसमें प्रियतम की याद को दर्शाया जाता है।

16.कामण - कामण का अर्थ है - जादू-टोना। पति को अन्य स्त्री के जादू-टोने से बचाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला गीत है।

17. पीपली - मारवाड़ बीकानेर तथा शेखावटी क्षेत्र में वर्षा ऋतु के समय स्त्रियों द्वारा गया जाने वाला गीत है।

18. सेंजा - यह एक विवाह गीत है, जो अच्छे वर की कामना हेतु महिलाओं द्वारा गया जाता है।

19.जच्चा - यह बच्चे के जन्म के अवसर पर गाया जाने वाला गीत है, जिसे होलरगीत भी कहते हैं।

20. चिरमी - चिरमी एक पौधा है जिसके बीज आभूषण तौलने में प्रयुक्त होते थे। चिरमी के पौधे को सम्बोधित कर नायिका द्वारा आल्हादित भाव से ससुराल में आभूषणों व चुनरी का वर्णन करते हुए स्वयं को चिरमी मान कर पिता की लाडली बताती है। इसमें पीहर की याद की भी झलक है।

21. केसरिया बालम - राजस्थान के इस अत्यंत लोकप्रिय गीत में नायिका विरह से युक्त होकर विदेश गए हुए अपने पति की याद करती है तथा देश में आने की अनुनय करती है।

22.हिण्डोल्या - राजस्थानी स्त्रियां श्रावण मास में झूला-झूलते हुए यह गीत गाती है।

23. हमसीढो - भील स्त्री तथा पुरूष दोनों द्वारा सम्मिलित रूप से मांगलिक अवसरों पर गाया जाने वाला गीत है।

24. ढोला-मारू - सिरोही क्षेत्र का यह लोकप्रिय गीत ढोला-मारू के प्रेम-प्रसंग पर आधारित है तथा इसे ढाढ़ी लोग गाते हैं।

25. रसिया - रसिया होली के अवसर पर ब्रज, भरतपुर व धौलपुर क्षेत्रों के अलावा नाथद्वारा के श्रीनाथजी के मंदिर में गए जाने वाले गीत है जिनमें अधिकतर कृष्ण भक्ति पर आधारित होते हैं।

26. इडुणी - इडुणी पानी भरने के लिए मटके के नीचे व सर के ऊपर रखे जाने वाली सज्जा युक्त वलयाकार वस्तु को कहते हैं। यह गीत पानी भरने जाते समय स्त्रियों द्वारा गाया जाता है। इसमें इडुणी के खो जाने का जिक्र होता है।

27. पणिहारी - यह पनघट से जुड़े लोक गीतों में सर्वाधिक प्रसिद्ध है। पणिहारी गीत में राजस्थानी स्त्री का पतिव्रता धर्म पर अटल रहना बताया गया है। इसमें पतिव्रत धर्म पर अटल पणिहारिन व पथिक के संवाद को गीत रूप में गाया जाता है। जैसे – कुण रे खुदाया कुआँ, बावड़ी ए पणिहारी जी रे लो।

28. वर्षा ऋतु के गीत - वर्षा ऋतु से संबंधित गीत वर्षा ‘ऋतु गीत’ कहलाते है। वर्षा ऋतु में बहुत से सुन्दर गीत गाये जाते हैं। इस गीत में वर्षा ऋतु को सुरंगी ऋतु की उपमा दी गई है।

29. मोरियो - विरहनी स्त्री द्वारा मोर को सम्बोधि करते हुए गाए जाने वाले गीत को मोरिया गीत कहते है। यह प्रमुख लोकगीत है। मोरियों आछौ बोल्यौ रे ठलती रात मां...

30. वन्याक (विनायक) - गणेशजी (विनायक) मांगलिक कार्यो के देवता है। अत: मांगलिक कार्य एवं विवाह के अवसर पर सर्वप्रथम विनायक जी का गीत गाया जाता है।

31.बना-बनी - राजस्थानी संस्कृति के अनुसार जिस युवक व युवती की शादी होने वाली होती है, उस युवक को बना तथा युवती को बनी कहा जाता है। विवाह के अवसर बना-बनी बनकर जो गीत गाये जाते है, वे ‘बना-बनी’ कहलाते है।

32. धुडला - मारवाड़ क्षेत्र का लोकप्रिय गीत है, जो स्त्रियों द्वारा घुड़ला पर्व पर गाया जाता है। गीत है -'घुड़लो घूमै छै जी घूमै छै।' यह गाते समय स्त्रियाँ अपने सर पर मिट्टी का छेद वाला छोटा घड़ा रखती है जिसमें दीपक जला होता है।

33.जलो और जलाल - विवाह के समय वधू पक्ष की स्त्रियां जब वर की बारात का डेरा देखने आती है तब यह गीत गाती है।

34. जकडि़या - पीरों की प्रशंसा में गाए जाने वाले गीत जकडि़या गीत कहलाते है।

35.दुप्पटा - विवाह के समय दूल्हे की सालियों द्वारा गया जाने वाला गीत है।

36. हरजस - हरजस का अर्थ है हरि का यश अर्थात हरजस भगवान राम व श्रीकृष्ण की भक्ति में गाए जाने वाले भक्ति गीत है।

37. पपीहा - यह पपीहा पक्षी को सम्बोधित करते हुए गाया जाने वाला गीत है। जिसमें प्रेमिका अपने प्रेमी को उपवन में आकर मिलने की प्रार्थना करती है।

38. बिच्छुड़ो - यह हाडौती क्षेत्र का लोकप्रिय गीत जिसमें एक स्त्री जिसे बिच्छु ने काट लिया है और उसे मृत्यु तुल्य कष्ट होता जिस कारण वह पति को दूसरा विवाह करने का संदेश देती है।

39. पंछीडा गीत - हाडौती तथा ढूढाड़ क्षेत्र का लोकप्रिय गीत जो त्यौहारों तथा मेलों के समय गाया जाता है।

40. लावणी - लावणी से अभिप्राय बुलावे से है। नायक द्वारा नायिका को बुलाने के सन्दर्भ में लावणी गाई जाती है।

41. पीठी - 'पीठी' गीत विवाह के अवसर पर विनायक स्थापना के पश्चात् भावी वर वधू को नियमत: उबटन (पीठी) लगाते समय गाया जाता है - 'मगेर रा मूँग मँगायो ए म्हाँ री पीठी मगर चढ़ावो ए'।

42. मेहँदी - विवाह होने के पूर्ववाली रात को यहाँ 'मेहँदी की रात' कहा जाता है। उस समय कन्या एवं वर को मेहँदी लगाई जाती है और मेहँदी गीत गाया जाता है - 'मँहदी वाई वाई बालड़ा री रेत प्रेम रस मँहदी राजणी।

43. बधावा - विवाह के अवसर पर बधाई के लिए गाये जाने वाले गीत।

44. झाडूलो - 'झाडूलो' मुंडन के गीतों को कहते हैं।

45. सेवरो - विवाह में वर के माथे पर मौर बाँधते समय 'सेवरो' (सेहरा) गाया जाता है - 'म्हाँरे रंग बनड़े रा सेवरा'।

46. भात व माहेरा - भात भरना राजस्थान की एक महत्वपूर्ण प्रथा है। इसे 'माहेरा या मायरा' भी कहते हैं। जिस स्त्री के घर पुत्र या पुत्री का विवाह पड़ता है वह घर की अन्य स्त्रियों के साथ परात में गेहूँ और गुड़ लेकर पीहरवालों को निमंत्रण देने जाती है। इसको 'भात' कहते हैं। मेवाड़ में इसे बत्तीसी कहते हैं। मूल रूप में भात भाई को दिया जाता है। भाई के अभाव में पीहर के अन्य लोग'माहेरा' स्वीकार कर वस्त्र तथा धन सहायता के रूप में देते हैं। इस अवसर पर भात गीत की तरह अनेक गीत गाए जाते हैं।

47. राती जगो - जब बारात ब्याह के लिए चली जाती है तो वर पक्ष की स्त्रियाँ रात के पिछले पहर में 'राती जागो' नामक गीत गाती हैं। देवी देवताओं के गीतों में 'माता जी', 'बालाजी' (हनुमान जी),भेरूँ जी, सेड़ल माता, सतीराणी, पितराणी आदि को प्रसन्न करने की भावना छिपी है। सबके अलग अलग गीत होते हैं। इसके अलावा विशेष अवसर पर देवों को प्रसन्न करने के लिए भी रात भर जागरण करके महिलाओं द्वारा राती जगो के गीत गाये जाते हैं।

48. पंखेरू गीत - राजस्थानी अंचल में कई अत्यंत प्रिय एवं प्रसिद्ध पंखेरू गीत गाये जाते हैं, जैसे- ‘आड,कबूतर, कमेड़ी, काग, कागली, काबर, काळचिड़ी, कुरजां, कोचरी, कोयल, गिरज, गेगरी,गोडावण, चकवा-चकवी, चमचेड़, टींटोड़ी, तिलोर, तीतर, दौडो, पटेबड़ी, पीयल, बइयो,बुगलो, मोर, सांवळी, सारस, सुगनचिड़ी, सूवो, होळावो आदि । इनमें से कुछ अंचल विशेष तक सीमित है और कुछ सार्वभौम स्वरूप् लिए हुए है। विषय वस्तु की दृष्टि से इन पंखेरू गीतों को इन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है -1. वर्णनात्मक गीत, 2. शकुन गीत और3. प्रेम भरे सम्बोधन गीत ।

49. बारेती - प्रातःकाल 4 बजे जब शीतकाल में किसान बैलों की सहायता से पानी निकालते हैं तो वह गीत गाया करते हैं । इन्हें ‘बारेती’ गीत कहते हैं । इन गीतों में भक्ति से संबंधित गीत भी होते हें । बारेती गीतों में नीति तथा श्रृंगार आदि के दोहे से होते हैं।

50. धमार/ धमाल - ‘धमाल’ या ‘धमार’ एक गायन शैली है, जिसको होली के दिनों में ही गाने की प्रथा है, चाहे वह लौकिक हो अथवा शास्त्रीय । धमाल के गीतों में नृत्य तत्व होने से लोग इन गीतों की लय के अनुसार नाचते भी हैं । शेंखावाटी क्षेत्र में ‘धमाल’ गाने की परंपरा है जिसमंे ‘डफ’ बादन की संगति की जाती है।

51. नारंगी - गर्भावस्था में खट्टी वस्तुएं पसंद होती है इसी तथ्य पर आधारित गीत।

52. हरणी - मेवाड़ में बालकों द्वारा दीपावली के पूर्व नवरात्रि के दिनों से प्रारंभ होकर दीपावली तक गाँव के प्रत्येक द्वार-द्वार जा कर गाये जाने वाले गीतों को हरणी कहते है। जिस घर के बाहर हरणी गायी जाती है उस घर वाले इन बच्चों को अनाज आदि उपहार देते हैं।

53. संतान उत्पत्ति के गीत - बच्चे के जन्म के बाद जच्चा गीत, पीपली, सूरज-पूजा, जलमा आदि गीत गाये जाते हैं।

54. बिनोलो - विवाह से पूर्व वर या वधू को अपने सम्बन्धियों द्वारा भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता है जिसे बिनोला या बिन्दौरा कहते हैं। इस समय गाये जाने वाले गीतों को बिनोलो कहते हैं।

55. परभातिया - विवाह के अवसर पर प्रातःकाल में ब्रह्म मुहूर्त में गाये जाने वाले गीत।

56. घडलियो - मेवाड़ क्षेत्र में बालिकाओं द्वारा दीपावली के पूर्व नवरात्रि के दिनों से प्रारंभ होकर दीपावली तक गाँव के प्रत्येक द्वार-द्वार जा कर गाये जाने वाले गीतों को घडलियो कहते है। जिस घर के बाहर घडलियो गाया जाता है उस घर वाले इन बालिकाओं को आदि उपहार देते हैं। बालिकाओं में एक बालिका के सिर पर मिट्टी का छेद वाला छोटा घड़ा रखती है जिसमें दीपक जला होता है, इसे ही घडलिया कहते है।

भजन- मिरा बाईं

भजन

आज्यो म्हारे देस

बंसीवारा आज्यो म्हारे देस। सांवरी सुरत वारी बेस।।

ॐ-ॐ कर गया जी, कर गया कौल अनेक।

गिणता-गिणता घस गई म्हारी आंगलिया री रेख।।

मैं बैरागिण आदिकी जी थांरे म्हारे कदको सनेस।

बिन पाणी बिन साबुण जी, होय गई धोय सफेद।।

जोगण होय जंगल सब हेरूं छोड़ा ना कुछ सैस।

तेरी सुरत के कारणे जी म्हे धर लिया भगवां भेस।।

मोर-मुकुट पीताम्बर सोहै घूंघरवाला केस।

मीरा के प्रभु गिरधर मिलियां दूनो बढ़ै सनेस।।