राव #श्री #रुपारामजी #तरक के इतिहास की एक झलक
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राजस्थान राज्य के जालौर जिले के सांचौर तहसील से पश्चिम दिशा में 9 किलोमीटर दूरी पर स्थित किलवा गांव में उस समय के आंजना समाज के एक समाजसेवी एवं किसान श्री सोमदेवजी तरक के घर सन् 1350 (संवत् 1406) में एक पुत्र का जन्म हुआ और पिताश्री सोमदेवजी ने अपने पुत्र का नाम रुपाराम रखा।
रुपाराम बचपन से ही ज़िद्द के पक्के थे और मात्र 8 वर्ष की उम्र में ही समाजसेवा करने की ज़िद्द ठान ली थी।
तभी रूपाजी तरक के माता-पिता का स्वर्गवास हो गया और उनके भाइयों ने रुपाराम को पालने से मना कर दिया तो रूपाजी के पिताश्री सोमदेवजी के धर्मभाई (एक व्यापारी/बालदी) अपने साथ रूपारामजी को लेकर गए और बड़ा किया और लगभग 15 साल की उम्र में रूपारामजी वापस किलवा आ गए।
रूपारामजी के पिताजी गांव-चौधरी थे तो उन्होंने रुपारामजी के लिए बहुत सारा धन जमीन में गाड़ रखा था। तो फिर रूपारामजी ने किलवा आकर उस धन का पता लगाया.... और कुछ धन लेकर किलवा के ठाकर के पास के पास पहुंचे और अपने खानदान के बारे में बताया तभी ठाकर ने उसके परिवार के भाइयों को बुलाया तो भाइयों ने मना कर दिया कि हम अपना खेत वापस नहीं देंगे और यदि तुम मोहरों से भरा एक सरू हमें देंगे तो जरूर आपको आपकी जमीन लौटा दी जाएगी। तभी रूपाजी तरक ने एक सरू धन भाइयों को दिया।
उस समय के ठाकर के पिताजी का स्वर्गवास हो गया था लेकिन माताजी जीवित थे एवं पहले माताजी ने सोमदेवजी को धर्मभाई कर रखा था क्योंकि ठाकर के माताजी के एक भी सगा भाई नहीं था। तो उस समय उन्होंने अपने घर से मोटी मोहरों से भरी हुई हथेली को अपने भतीजे रूपारामजी को देकर कहा कि ले भतीजे......अपनी समाज को उजली करना अर्थात् समाज के भविष्य को उज्जवल करना।
उस समय जोधपुर दरबार में राठौड़ वंश का शासन था। उस समय रूपारामजी तरक रवाना(Tax) भरने के लिए धन लेकर लेकर जोधपुर दरबार में पहुंचे... रवाना जमा करवाया और किलवा में एक बड़ा सामूहिक विवाह प्रसंग आयोजित करवाने की चर्चा की और टक्का प्रथा जैसी कुरीतियों एवं अंधविश्वासों को ख़त्म करने के लिए सहयोग मांगा....राजा ने रूपारामजी को खुश होकर सहयोग देने का आश्वासन दिया और बदले में रुपारामजी ने राजा को आर्थिक एवं सैन्य सहयोग देने का वादा किया। और उसी समय रूपारामजी तरक ने धन देकर सत्यपुर नगर के राजकुमार राव श्री वरजांगजी के विवाह करवाने में आर्थिक मदद की थी। और सैन्य सहयोग भी दिया था, तभी कुछ समय बाद राव वरजांगजी के द्वारा सामूहिक विवाह प्रसंग आयोजन की शुरुआत करवाने के लिए रूपारामजी तरक को अढळक सोने की मोहरे दान में दी और बाद में श्री रुपाराम जी तरक ने इस धन से स्तम्भों से तोरण बांधा गया था जिसका प्रमाण यह शिलालेख दे रहा हैं... इस स्तंभ पर रूपाजी तरक, राव वरजांगजी और कई लोगों के नाम अंकित है एवं इसकी जानकारी एक गीत में मिल रही हैं जो आप सभी के समक्ष पेश कर रहा हूँ ।
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चढ़यो वरजांग परणवा सारू ,
घण थट जांन कियो घमसाण ।।
संवत चौदे सो वरस इकताळे ,
जादव घर जुड़या जैसाण ।।1।।
राण अमरांण उदयपुर राणो ,
भिड़या भूप तीनों कुळभांण ।।
चड़ हठ करण ज्यूँ छोळां दे ,
चित्त ऊजळ जितयो चहुआंण ।।2।।
आँजणा मदद करि हद ऊपर ,
साढ़ा तीन करोड़ खुरसाण ।।
मशरिक मोद हुओ मन मोटो ,
सोवन चिड़ी कियो चहुआंण ।।3।।
किलवे जाग जद रूपसी कीनो ,
आयो सोनगरो धणी अवसाणं ।।
मांगो आज मुख हुतां थे म्हांसूं ,
भाखे मशरिक राव कुळभांण ।।4।।
कुळ गुरू तणी मांगणी किन्ही ,
तांबा पत्र लिखियो कुळ तेण ।।
चहुआंण वंश ने आँजणा शामिल ,
दतक वर सुध नटे नह देंण ।।5।।
साख भड़ मोय आज सब शामिल ,
गौ ब्रह्म हत्या री ओ गाळ ।।
वेण लेखांण साख चंद्र सूरज ,
शुकवि बेहु कुळ झाली साळ ।।6।।
टंकन मीठा मीर डभाल।
इस गीत को पढ़ने या सुनने से हमें पता लगता है कि राव वरजांगजी , खिमरा सोढा और उदयपुर राणा साहब यानी तीन बारातें जैसलमेर आई थी जिसमें रूपाजी तरक के भूतेळा सहायक था और क्योंकि उस समय ज्यादातर गढ़ो में चौहान शासकों का शासन था तो जालौर शासक सोनगरा चौहान श्री वीरमदेवजी ने भी रुपारामजी... को हरसंभव सहयोग देने का वादा किया था।
श्री रूपारामजी तरक के निवेदन पर राव श्री वरजांगजी चितलवाना ने सात विशी यानी 140 कन्याओं का विवाह करवाया । उस समय तुरी जाति के लोगों ने सोने के एक टक्के को अदा करने की हठ पकड़ रखी थी। जिसके कारण 140 कन्याएं विवाह योग्य होने के बावजूद विवाह नहीं हो पा रहा था तब सामूहिक विवाह करवाया गया।
बाद में संवत् 1441 में एक बार और रूपाजी तरक के पिताश्री सोमदेव जी के स्वर्गवास के बाद यादगार के रूप में श्री रूपाराम तरक ने सभी हिंदू समाजों के साथ मिलकर किलवा में सामूहिक विवाह प्रसंग आयोजित करवाने का विचार किया क्योंकि उस समय हिंदू धर्म से संबंधित समाजों में घोर कुरीतियों और अंधविश्वास के कारण #समाज तत्कालीन समाज की मुख्यधारा से बहुत पिछड़ा हुआ था। और उसी समय आंजना समाज के साथ-साथ अन्य हिंदू समाजों (#अधिकतर समाजों) में भी लड़की के विवाह के लिए टक्का प्रथा प्रचलित थी।
अगर कोई हिंदू परिवार अपनी लड़की का विवाह करवाता तो तुरा लोग एक टक्का लेते, नहीं तो विवाह नहीं होने देते। इस कारण हिंदू धर्म से संबंधित सभी समाजों में लड़कियों का विवाह टक्का नहीं देने पर रुक जाता था।
इसलिए श्री रूपाराम तरक ने इन कुरीतियों को मिटाने के लिए मारवाड़ एवं गुजरात के सभी हिंदू समाजों के प्रमुख विचार-विमर्शकारों के साथ बैठकर निर्णय लेने का फैसला किया। और बैठकें हुई और 6 महीने जगन (प्रसाद) चलाया था, तो सभी समाजों ने सर्वसम्मति से श्री रूपारामजी तरक को इन कुरीतियों को समाप्त करने के लिए नेतृत्वकर्ता बनाने की इच्छा जाहिर की थी तब श्री रूपारामजी तरक ने भी सभी समाजों का सम्मान रखते हुए नेतृत्व करने का निवेदन स्वीकार किया था। और पश्चिमी राजस्थान #मारवाड़ एवं गुजरात के सभी हिंदू समाजों निमंत्रण भेजा कि सभी समाज के लोग आकर इस सामूहिक विवाह कार्यक्रम में अपनी बेटी का विवाह करवा सकता है। तब उस समय गुजरात एवं मारवाड़ क्षेत्र में जगह-जगह श्री रुपारामजी तरक की चर्चा होने लगी कि ऐसा नेतृत्वकर्ता कौन है.? एवं इनकी वजह क्या है.? किस माँ ने ऐसे वीर पुरुष को जन्म दिया.?
हर किसी व्यक्ति की जुबान पर यानी 36 कौम की जुबान पर श्री रूपाराम तरक का नाम था। तुरा समुदाय में भी श्री रुपाराम तरक को लेकर चर्चा होने लगी कि ऐसा व्यक्ति कौन है.? जो हमें बच्चे से लेकर बुड्ढे तक सभी को सोने की मोहर/टक्का देंगे।... क्योंकि सर्व हिंदू समाज की कन्याओं के सामूहिक विवाह प्रसंग का आयोजन करवाया जा रहा था।...
लेकिन सामूहिक विवाह वाली रात से पहले तुरियों के आराम करने के लिए एक विशाल बाड़ा बनाकर लकड़ी की मजबूत दीवार बनाई गई और उस बाड़े में बारूद बिछाया गया..... और यह सब कार्य योजनाबद्ध तरीके से किया गया ताकि किसी तुरी को पता ना चल सके।... सब तुरी इकट्ठा हुए और दोहपर का भोजन करके श्री रूपारामजी से बोले कि अब हमें मोहर दे दो.... तो रूपारामजी ने कहा कि आपने अभी खाना खाया है तो बाड़े में जाकर थोड़ी देर आराम कर लो.... फिर आप सभी को मोहर देने का कार्यक्रम रखते हैं।.... तब सभी तुरी बाड़े में जाकर सो गए लेकिन उनको बारूद होने की कोई भनक तक नहीं लगी... इसीलिए जब वह गहरी नींद में सो रहे थे तभी उस बाड़े में बिछाए गए बारूद में विस्फोट हुआ और लगभग सभी तुरी लोग इसमें जल गए और मर गए।
लेकिन एक मरते हुए तूरी ने श्री रुपाराम को एक श्राप दिया था कि आपने कितना भी महान् काम किया हो लेकिन आपके इस ऐतिहासिक कार्य को आगे जाकर लोग भूल जाएंगे और आपके इस ऐतिहासिक कार्य को महत्व नहीं मिलेगा।.....
और उसी दिन.... रात को श्री रूपाराम तरक ने अपने खर्चे पर सन् 1385 (संवत् 1441 ) में लगभग 1600 कन्याओं का सामूहिक विवाह प्रसंग आयोजित करवाया।
और श्री रूपाराम ने अपने पिताश्री सोमदेवजी इच्छा पूरी की।
किलवा गांव में 1600 कन्याओं के विवाह के उपलक्ष में तोरण द्वार पर अंकित लिपि आज भी विद्यमान है लेकिन लिपि की भाषा प्राचीन होने के कारण आज तक इस लिपि को कोई पढ़ नहीं पाया है लेकिन इस लिपि को लेकर कई बातें / दन्त कथाएं प्रचलित है।........
श्री रूपाराम तरक का इतिहास पूरे आंजणा/#कलबी समाज का इतिहास है। और सच कहूं तो पूरे हिंदू समाज का इतिहास है क्योंकि उस समय 1600 कन्याओं में 14 वर्णों की कन्याएं शामिल थी। इसमें से एक वर्ण कलबी समाज था। और भी कई वर्णें जैसे- सुथार, जाट, राजपूत (चौहानों को छोड़कर), रसपूत, ब्राह्मण, माली, नाई आदि समाज भी शामिल थे।... क्योंकि पूरे हिंदू धर्म की संस्कृति को बदनाम करने के लिए तुरा समुदाय ने आतंक फैला रखा था।. और टक्का प्रथा जैसी कुरीतियां प्रचलित थी... जिसे समाप्त करने के लिए श्री रूपाराम तरक ने सभी समाजों को निमंत्रण भेज कर सामूहिक विवाह कार्यक्रम में शामिल होने का न्यौता दिया और कहा कि हिंदू धर्म से संबंधित किसी भी समाज/वर्ण का व्यक्ति आकर अपनी कन्या का विवाह करवा सकता है... यह खबर पूरे पश्चिमी राजस्थान एवं गुजरात में सभी जगह फैल गई और 14 वर्णों /#समाजों की 1600 कन्याओं का सामूहिक विवाह कार्यक्रम आयोजन किया गया और हिंदू धर्म से संबंधित सभी समाजों ने इस कार्यक्रम में भाग लिया था। । उस दिन के बाद से तुरियों का परित्याग करके रावों को कलबियों के बहिवाचन का काम सौंपा गया था।
ऐसे ऐतिहासिक कार्यों की पहचान आंजणा/कलबी समाज के पुरखों की राव द्वारा नामों की पोथी (राव नामो वाचे ) पढ़ते समय सबसे पहले #रूपाजी_तरक नाम का वाचन करते हैं.... इससे मालूम पड़ता है कि राव समाज के लिए भी रूपाजी तरक का एक ऐतिहासिक महत्व रहा है क्योंकि सामूहिक विवाह प्रसंग के समय आंजणा/कलबी समाज के वंशजों की जानकारी रखने, नया नाम जोड़ने और वंशावली वाचनें का काम राव समाज को सौंप दिया।
रूपाजी तरक के समय सबसे पहले यह काम रावजी श्री गलारामजी राव को सौंपा गया था। इसीलिए श्री रुपारामजी तरक से लेकर आज तक आंजणा/ कलबी समाज की वंशावली रखने का काम राव समाज करता आ रहा है।
अतः कह सकता हूं की श्री रूपारामजी तरक ने हिंदू समाज में उस समय के मारवाड़ की रियासतों के सहयोग से अपनी ज्ञानरूपी गंगा को प्रवाहित कर हिंदू समाज की हजारों कन्याओं का विवाह रचाया था।
सोने रो टक्को देकर सारो यों सुख करयो,
ऐड़ा रूपाभाई तरक जीणै समाज रों नाम रोशन करयो।
हजारों कन्याओं रो भविष्य उज्जवल करयो,
अने पीढ़ी-पीढ़ी रो सुख करयो।
अतः स्पष्ट है कि 1600 कन्याओं के विवाह के दिन से ही हिंदू समाज में दहेज प्रथा जैसी कुप्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया और आंजणा/कलबी समाज के साथ साथ सर्व हिंदू समाजों के उज्जवल भविष्य की एक नई शुरुआत की और अंधविश्वासों से ऊपर उठकर जागृत करने की अलख जगाई।
इसीलिए वीर-योद्धा और दानी-पुरुष श्री रूपारामजी तरक की वीरता की कहानियां सुनकर दाता श्री राजारामजी महाराज भी किलवा की तपोभूमि पर एक बार पधार चुके हैं और किलवा पधारकर श्री राजारामजी महाराज ने शिलालेखों और इस तपोभूमि का भ्रमण किया था एवं समझने की कोशिश की थी, साथ ही श्री रूपारामजी तरक के इतिहास को लेकर प्रशंसा भी की थी और 7 दिन किलवा में रुके भी थे ताकि स्थानीय लोगों के बीच में रहकर उस इतिहास को समझ सके...क्योंकि यह (श्री रुपाराम तरक का समय) श्री राजारामजी महाराज के समय से भी लगभग 5०० साल पुराना इतिहास है।....
उस समय श्री राजारामजी महाराज ने किलवा के लोगों से प्रार्थना की थी कि आप रूपारामजी के इतिहास को सबके सामने लाए और ऐतिहासिक भूमि को धरोहर के रूप में संभालना शुरू कर दें। अर्थात् दाता श्री राजाराम जी महाराज ने भी किलवा गांव वालों को बोला था कि आप रुपाराम के इतिहास को संरक्षण देना....उसके बाद आज तक हमारे समाज में एकता नहीं दिखी।
लेकिन बड़े दुख की बात है कि आज तक श्री रुपारामजी तरक के इतिहास के बारे में न तो किसी ने समझाने का प्रयास किया और ना ही उस इतिहास को संरक्षित किया।
बड़ी विडंबना के साथ कहना पड़ रहा है कि आज श्री रूपाराम तरक के इतिहास के स्रोतों को ढूंढने और जानने में बहुत मुश्किलें आ रही है। क्योंकि उस इतिहास के बारे में जानकारी के स्रोत आसानी से नहीं मिल रहे।...
यह बात भी विचार करने लायक है कि रूपारामजी को मिले उस श्राप की वजह से एकता में विघ्न पड़ रहा है.... सोचने वाली बात है.???
क्योंकि अगर हम सब समाज (36 कौम) के भाई-लोग आज भी सोचे तो एक बार में ही यह बात समझ में आ जाएगी है कि 600 वर्ष पुराने ऐतिहासिक कार्यों को आज तक किसी ने महत्व देने का प्रयास ही नहीं किया और एक इतिहास की तरह कभी नहीं देखा गया... न ही किसी ने रूचि ली कि उस इतिहास को लेकर कुछ यादगार स्मारक बनाई जाए...!!!!!
लेकिन अब भी वक्त है कि इस ऐतिहासिक कार्य को यादगार बना सकते हैं अगर हम सब समाज एक हो जाए।... वैसे भी आज के समय में जातिवाद के जहर ने 36 कौम की एकता को जरूर तोड़ा है लेकिन अगर हम ऊपर उठकर कुछ सोचेंगे तो रूपारामजी तरक के समय में जैसी एकता दिखीं थी, वैसा इतिहास वापस दोहरा सकते हैं। लेकिन यह तभी संभव है जब 36 कौम में मजबूत एकता होगी।
फिर भी किसी सुनी हुई बात का बड़े बुजुर्गों से पूछ कर सटीक जानकारी आप तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूं।
यह बात रावों के बही-वाचन से और बड़े-बुजुर्गों से सुनकर आप सभी तक पहुंचाने का प्रयास किया है।