शनिवार, 22 अगस्त 2015
- मारवाड़ी समझाइश
म्हारो गांव
म्हारो ठाव है एक गांव
जठै न बंगळा न हैलियां
न ढिगला थैलियां ।
बुधवार, 12 अगस्त 2015
Kaali Chint
छींटयानी एक विशेष प्रकार का सूती कपड़ा जो कभी लोकसंस्कृति व लोकजीवन का पर्याय रहा था. सदियों सदियों तक भारत की छींट दुनिया भर में प्रसिद्ध रही. थार के लोकजीवन से तो इसका नाता कुछ अधिक ही गहरा था. पर बदलते वक्त के साथ यह सूती कपड़ा आम जन का पहनावा नहीं कुछ लोगों का शगल बनकर रह गया है. ढोल मंजीरों की गूंज के साथ छींट के नजारे भी गायब से हो रहे हैं.
किसीजमाने में छींट का प्रचलन लगभग पूरे भारत में था. यह सांस्कृतिक विविधिताओं वाले समाज में ‘सर्वग्राह्यता’ की मिसाल थी और कई कारणों से राजस्थान की मरूभूमि के लोकजीवन में इसे ज्यादा ही महत्व मिला. प्रेम, सौंदर्य व वीरता के साथ धोरों की यह धरा अपनी छींट व बंधेज के काम के कारण भी चर्चित रही है. तपते रेगिस्तानी वातावरण में लोगों को तन ढकने के लिए छींट जैसे ठंडी तासीर वाले कपड़े की दरकार थी. तीखी धूप व दूसरे वातावरणीय दुष्प्रभावों से बचाव में उपयोगी होने के कारण छींट का प्रचलन बढना स्वाभाविक था. कपड़ा खुसता नहीं और धोने के लिए साबुन या पाऊडर की जरूरत नहीं. गृहिणियां छींट को राख या रीठे से आसानी से धो लेतीं. सस्ती भी इतनी कि नये कपड़े की खरीद किसी को भारी न लगे. सबसे बड़ी बात कि यह मानव स्वास्थ्य के अनुकूल थी. धूप से त्वचा का बचाव करती तथा भीषण गर्मी तपन में रोमकूपों तक हवा की आवाजाही को सुगम बनाती.
इन्हींतमाम विशेषताओं के कारण छींट का कपड़ा लोकप्रिय होता गया. इसकी रंगाई शुरू में गांवों में छींपा लोग ही कर लेते थे. मशीनी युग में इसकी लोकप्रियता चरम पर पहुंची. बुजुर्गवार आज भी राधिका प्रिंट वाली छींट को याद करते हैं. अहमदाबाद में तैयार यह कपड़ा जनमानस में इस तरह से रचा बसा कि कुछ ही दिनों में छींट व राधिका प्रिंट एक दूसरे के पर्यायवाची हो गए. थाली व बूंदी की छींट भी कम लोकप्रिय नहीं रही. मुलतानी व सांगानेरी छींट के घाघरे वर्षों तक महिलाओं के व्यक्तित्व को नया आयाम देते रहे. हल्के रंग वाली बारीक बूंटियां बगरू/ सांगानेरी छींट की विशेषता रही; हाड़ौती अंचल तो आज भी छींट की छपाई के लिए ही जाना जाता है.
हररंग व डिजाइन तथा न्यूनतम दाम में मिलने वाली छींट प्रत्येक तबके के लोगों के लिए पहली पसंद रही. अस्सी कळी (लगभग 22 मीटर) के घाघरे हों या दस गज की चीणदार अंगरखी, एक समय छींट रोटी में नूण की तरह जनजीवन में रच बस गई.
अब जमाना डेनिम, नॉन डेनिम, रोये, लिजीविजी, पॉपलीन, काटनफील, जार्जेट, सेंचुरी, स्पन तथा ट्विल प्रिंट का है. चल निकले हैं और छींट इस दौड़ में कहीं पीछे छूट गई है. कई मायनों में छींट के विकल्प के रूप में सामने आया कॉटनप्रिंट भी महंगा होने के कारण चल नहीं पाया. वक्त के साथ वे लचकदार कमर भी नहीं रहीं जो जो अस्सी कळी के ‘भारी’ घाघरों लहरियों के साथ नजाकत से चल सकें.
थार में छींट को केंद्र में रखते हुए अनेक लोकगीत हैं जिनमें से ‘ढोला ढोल मजीरा बाजै रे काली छींट गो घाघरो निजारा बाजै रे’ तो आज भी खूब बजता है. वस्त्रों को लेकर ‘ म्हारो अस्सी कळी को घाघरो .. ’ तथा ‘छैल भंवर जी थानै मंगास्यू छापो सांगानेर गो..’ जैसे गीत भी अनूठे हैं.
कहां से आई छींट :भारत में बनने वाले सूती कपड़ों में छींट ही सबसे प्रसिद्ध मानी गई है. यूरोप में इसे चिंट्स कहा जाता है. मसूलीपत्तनम की छींट सबसे प्रसिद्ध थी. कहते हैं कि यह कला ईरान से भारत में आई और ईरान की चिंट भारत में छींट हो गई. यूरोप को भी इसे इसी नाम से जानते हैं. छींट (Chhintz), गत (Blotch), बँधनी (Tie Dyeing) और बातिक (Batik) आदि शब्द वस्तुत: छपाई की प्रक्रिया के सूचक हैं. छींट और गत की छपाई यंत्रों से की जाती है. छींट में रंगीन भूमि कम ओर गत में लगभग सभी वस्त्र रंगचित्रों से ढका होता है. छींट की छपाई में ही अधिकाधिक उत्पादन कम खर्च में लिया जा सकता है. इसके भारत में लोकप्रिय होने का एक बड़ा कारण इसे भी माना जा सकता है. छींट शब्द की उत्पत्ति को लेकर अलग अलग बात की जाती है. किसी का कहना है कि छींट संस्कृत के क्षिप्त से बना है. वैसे लोकजीवन में छींटा देना, छींटे यानी छोटी बूंदें, छींटे मारना यानी बिखरा देना जैसे शब्द खूब प्रचलित है. ऐसे में लगता तो यही है कि छींट शब्द भारत से बाहर फैला
काचर राजस्थान में खाने में ही काम नहीं आता, साल भर बतरस की तरह भी बरता जाता है.
काचर,एक ऐसा शब्द जो थार में बात को नया रस देता है. काचर, एक ऐसा फल (या सब्जी) जो छठ बारह महीने थार में थाली को चटपटा बनाए रखता है. दो मुहावरे हैं- काचर गा बीज और अठे कै काचर ल्ये (काचर का बीज/ यहां क्या काचर ले रहा है.) काचर अपने तीखी खटास या अम्ल के लिए भी जाना जाता है. काचर के एक छोटे से बीज को अगर एक मण (40 किलो लगभग) दूध में डाल दें तो वह पूरे दूध को फाड़ देगा. खराब कर देगा. यहीं से ‘काचर का बीज’ मुआवरा निकलता है यानी कुचमादी, गुड़ गोबर करने वाला, अच्छे भले काम को बिगाड़ने वाला. इसी तरह ‘यहां क्या काचर ले रहा है’ मतलब यहां क्या भाड़ झोंक रहा है, जाकर अपना काम क्यों नहीं करते?
किसी विशेषकर छोटे या बच्चे की खिंचाई करने के लिए काचर का बीज, काचर सा न हो तो, काचर बिखरने जैसे वाक्य मुआवरे हर किसी की जुबान पर रहते हैं. अधिक शरारती को मटकाचर (बड़ा काचर) कह दिया जाता है.
दियाळी रा दीया दीठा, काचर बोर मतीरा मीठा (दिवाली के दिये दिखाई दिये और काचर, बेर और मतीरे मीठे हुए क्योंकि दिवाली बीतने पर काचर बेर और मतीरे मीठे हो जाते है).
खाने में काचर की बात की जाए. काचर यानी ककड़ी का छोटे से छोटा रूप. काचर, काकड़ी, मतीरा, खरबूजा ये लगभग एक ही वंशकुल के तथा थार की बालुई मिट्टी में कम पानी में होने वाले फल सब्जियां हैं. वैसे ये सभी फल हैं लेकिन इनका काम सब्जियों में ज्यादा होता है. काचर तो काचर ही है. काचर हरा होता है तो बहुत खट्टा मीठा होता है और उसे कच्चा खाने का सोचते ही मुहं में कुछ होने लगता है. कच्चे काचर को लाल मिर्च और थोड़े से लहसुन के साथ कुंडी में रगड़कर, चुंटिए, दही या छा के साथ खाने को जो मजा है, मानिए गूंगे का गुड़ है!
वैसे काचरी को आयुर्वेद में मृगाक्षी कहा जाता है और काचरी बिगड़े हुए जुकाम, पित्त, कफ, कब्ज, परमेह सहित कई रोगों में बेहतरीन दवा मानी गई है.
काचर थोक में होता है. उसके छिलके को उतारकर टुकड़ों में काट जाता है और धूप में सुखा लिया जाता है. सूखकर काचर, काचरी हो जाता है और काचरी की चटनी तो .. कहते हैं कि आजकल पांच सितारा होटलों में विशेष रूप से परोसी जाती है. काचरी की चटनी तो बनती ही है इसे कढ़ी में डाल दिया जाता है, सांगरी के साथ बना लिया जाता है या किसी और रूप में भी. कचरी की चटनी का सही स्वाद उसे साबुत लाल मिर्च के साथ कुंडी में या सिलबट्टे पर रखड़कर बनाने व खाने में ही है. काचर काचरी थार में घरों में छठ बारह महीने उपलब्ध रहते हैं. भोजन में स्वाद और बातों में रस घोलते रहते हैं.
सूखी हुई लूणी»
थारमें हम नमक को लूण/नूण कहते हैं. इसी से लूणी यानी नमकीन शब्द बना है जिस नाम की एक नदी कभी अजमेर, बाड़मेर, जालोर, जोधपुर नागौर, पाली व सिरोही जिलों को सरसब्ज करते हुए बहती थी.
दरअसलअजमेर के निकट अरावली पर्वतमाला के बर-ब्यावर के पहाड़ों से निकल यह नदी बिलाड़ा, लूणी, सिवाणा, कोटड़ी-करमावास व सिणधरी होते हुए पाकिस्तान की सीमा के पास स्थित राड़धरा तक बहती जाती. और कच्छ के रण में मिलने से पहले मारवाड़ के कई गांवों कस्बों को छूते हुए निकलती. इसका एक किनारा बाड़मेर के बालोतरा कस्बे को छूते हुए निकलता है. अगर हम मोकळसर, गढ सीवाणा व आसोतरा से होते हुए बालोतरा आएं तो एक पुराना सा पुल है. इसके किनारे पर मंदिर है. मंदिर के किनारे हाथियों की दो उंची प्रतिमाएं हैं. कहते हैं कि लूणी के स्वर्णकाल में ये हाथी पूरे के पूरे डूब जाते थे और उसका पानी कस्बे के बाजार तक अपने लूणी निशान छोड़ जाता था.
लेकिनयह ‘वे दिन वे बातें’ जैसा है. अब तो लूणी में पानी ही आए बरसों बरस हो गए हैं. मारवाड़ के एक बड़े इलाकों की प्यास बुझाने वाली लूणी नदी दशकों से प्यासी है. मारवाड़ की यह मरूगंगा अब सूख चुकी है और इसके तल में जम गए नमक को जेठ आषाढ की दुपहरियों में दूर से ही चमकते हुए देखा जा सकता है.
लूणीनदी की गहराई भले ही न हो लेकिन इसका बहाव क्षेत्र बहुत व्यापक रहा है. सवा पांच सौ किलोमीटर से ज्यादा दूरी नापने वाला लूणी नदी का पानी आंकड़ों के लिहाज से 37,300 किलोमीटर से अधिक (प्रवाह) क्षेत्र को सींचता था. जोधपुर से पाली जाने वाली सड़क पर निकलें तो रोहेत से दायीं ओर वाली सड़क जालोर जाती है. यह जैतपुर, बस्सी, भाद्राजून, नींबला, आहोर व लेटा होकर जालोर पहुंचती है. लेकिन जालोर से बाहर से ही बागरा, बाकरा रोड़ स्टेशन, बिशनगढ, रमणिया, मोकळसर, गढ सीवाण, आसोतरा, बालोतरा व पचपदरा होते हुए वापस जोधपुर आएं तो एक साथ चार जिलों में घूमा जा सकता है. लगभग साढे चार सौ किलोमीटर की इस यात्रा में लूणी नदी, उसकी सहायक नदियां बार बार मिलती हैं. लेकिन सब की सब सूखीं.
कहतेहैं कि लूणी मूल रूप से खारी नदी नहीं है. इसका पानी बालोतरा या इसके आसपास आकर ही खारा होता है. जब यह नदी बहती थी तो इसके दोनों ओर कई मीलों तक कुएं भर भर आते थे. लेकिन उन कुंओं में लूण की मोटी परतें जम चुकी हैं. लूणी का स्वर्णकाल अतिक्रमणों व औद्योगिक कचरे के नीचे दब गया है और लूणी बेसिन योजना मानों इतिहास के किसी डस्टबिन में फेंक दी गई है.
धरम री बाड़ रूखाळ करै
माण-मरजादा री
काण-कायदा री
रीत- रिवाजां री
तीज- तिंवारा री
धरम री बाड़ रूखाळ करै
रिस्ता-नातां री
गांव-गवाड़ी री
खेत-खळां री
देस-दिसावर री
धरम री बाड़ रूखाळ करै
राज-समाज री
लाज-सरम री
बिणज-बौपार री
जलम-मरण री
धरम री बाड़ रूखाळ करै
भूल्या-भटक्यां री
पापी-दुस्मियां री
जीव-जिनावरां री
भूखा-तिरसा री
धरम री बाड़ रूखाळ करै
भाईचारै-मिनखाचारै री
बोल-बतळावण री
नाप-तोल री
जस-अपजस री
धरम री बाड़ रूखाळ करै
भूंड-भलाई री
ब्यांव-सगाई री
मोट-मिजाज री
मान-गुमान री
धरम री बाड़ रूखाळ करै
पढाई-लिखाई री
गुण-औगण री
पाप-पुन री
सरग-नरग री
धरम री बाड़ रूखाळ करै
गढ-कोटां री
हाट-बजारां री
घर-गळी री
हरख-बधावै री
धरम री बाड़ रूखाळ करै
सील-सुभाव री
सत-पत री
आस-औलाद री
जात-पांत री
धरम री बाड़ रूखाळ करै
सूरां-वीरां री
साधु-संता री
हठ-हठीलां री
प्रण-पक्कां री
धरम री बाड़ रूखाळ करै
हेत-हेताळूवां री
प्रीत-प्रीतम री
राग-सौरठ री
कवि-कलमा री
धरम री बाड़ रूखाळ करै
दसूं-दिसावां री
न्याव-अन्याव री
जोग-संजोग री
भाग-दुरभाग री
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