शनिवार, 31 जनवरी 2015



joke of the day

Ek bar gaav ka admi sahar me dost ki saadi me gaya
andar jate salad dekh kar vapas aa gaya
bahar akar bola abhi tak sabji bhi nahi bani hai

8 आदतों से सुधारें अपना घर :

१) :: अगर आपको कहीं पर भी थूकने की आदत है तो यह निश्चित है कि आपको यश, सम्मान अगर मुश्किल से मिल भी जाता है तो कभी टिकेगा ही नहीं . wash basin में ही यह काम कर आया करें ! २) :: जिन लोगों को अपनी जूठी थाली या बर्तन वहीं उसी जगह पर छोड़ने की आदत होती है उनको सफलता कभी भी स्थायी रूप से नहीं मिलती.! बहुत मेहनत करनी पड़ती है और ऐसे लोग अच्छा नाम नहीं कमा पाते.! अगर आप अपने जूठे बर्तनों को उठाकर उनकी सही जगह पर रख आते हैं तो चन्द्रमा और शनि का आप सम्मान करते हैं ! ३) :: जब भी हमारे घर पर कोई भी बाहर से आये, चाहे मेहमान हो या कोई काम करने वाला, उसे स्वच्छ पानी जरुर पिलाएं ! ऐसा करने से हम राहू का सम्मान करते हैं.! जो लोग बाहर से आने वाले लोगों को स्वच्छ पानी हमेशा पिलाते हैं उनके घर में कभी भी राहू का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता.! ४) :: घर के पौधे आपके अपने परिवार के सदस्यों जैसे ही होते हैं, उन्हें भी प्यार और थोड़ी देखभाल की जरुरत होती है.! जिस घर में सुबह-शाम पौधों को पानी दिया जाता है तो हम बुध, सूर्य और चन्द्रमा का सम्मान करते हुए परेशानियों से डटकर लड़ पाते हैं.! जो लोग नियमित रूप से पौधों को पानी देते हैं, उन लोगों को depression, anxiety जैसी परेशानियाँ जल्दी से नहीं पकड़ पातीं.! ५) :: जो लोग बाहर से आकर अपने चप्पल, जूते, मोज़े इधर-उधर फैंक देते हैं, उन्हें उनके शत्रु बड़ा परेशान करते हैं.! इससे बचने के लिए अपने चप्पल-जूते करीने से लगाकर रखें, आपकी प्रतिष्ठा बनी रहेगी ६) :: उन लोगों का राहू और शनि खराब होगा, जो लोग जब भी अपना बिस्तर छोड़ेंगे तो उनका बिस्तर हमेशा फैला हुआ होगा, सिलवटें ज्यादा होंगी, चादर कहीं, तकिया कहीं, कम्बल कहीं ? उसपर ऐसे लोग अपने पुराने पहने हुए कपडे तक फैला कर रखते हैं ! ऐसे लोगों की पूरी दिनचर्या कभी भी व्यवस्थित नहीं रहती, जिसकी वजह से वे खुद भी परेशान रहते हैं और दूसरों को भी परेशान करते हैं.! इससे बचने के लिए उठते ही स्वयं अपना बिस्तर समेट दें.! ७):: पैरों की सफाई पर हम लोगों को हर वक्त ख़ास ध्यान देना चाहिए, जो कि हम में से बहुत सारे लोग भूल जाते हैं ! नहाते समय अपने पैरों को अच्छी तरह से धोयें, कभी भी बाहर से आयें तो पांच मिनट रुक कर मुँह और पैर धोयें.! आप खुद यह पाएंगे कि आपका चिड़चिड़ापन कम होगा, दिमाग की शक्ति बढेगी और क्रोध धीरे-धीरे कम होने लगेगा.! ८) :: रोज़ खाली हाथ घर लौटने पर धीरे-धीरे उस घर से लक्ष्मी चली जाती है और उस घर के सदस्यों में नकारात्मक या निराशा के भाव आने लगते हैं.! इसके विपरित घर लौटते समय कुछ न कुछ वस्तु लेकर आएं तो उससे घर में बरकत बनी रहती है.! उस घर में लक्ष्मी का वास होता जाता है.! हर रोज घर में कुछ न कुछ लेकर आना वृद्धि का सूचक माना गया है.! ऐसे घर में सुख, समृद्धि और धन हमेशा बढ़ता जाता है और घर में रहने वाले सदस्यों की भी तरक्की होती है.! Its really

8 आदतों से सुधारें अपना घर :


शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

सरपंचा रा चुनाव-प्रचार

सेवा रे माय श्रीमान साब, प्रधाना मारसाब रा..प्रा.वि.पटेलो की ढाणी: सीनली जिलो(जोधपर) विषय-सरपंचा रा चुनाव-प्रचार महोदय, आज मने ढानीया ढपानीया सरपंचा रा चुनाव-प्रचार करवाने जानो, पडी दोन्यु टेमा सब्जी पूडी ओर लाडुडा है जीको आज तो स्कूल आवनो मुशकिल है सा तो आज री हाजरी भर दिजो नी मारसाब. काले -हलवा ,दाल पुडी सब्जी (दारू , बियर, ) आप रे ई लेने आइजाऊ! आप रो आघ्याकारी नाम- ललीतीयों हाजरी लमबर-आपणों रकीया ने ठा हे पूछ लीजो ठीक मारसाब अबे जाऊ नी तो पछे विरोधी खेमे वाले लोग सब्जी पूडी ओर लाडुडा खाजाई....

सरपंचा रा चुनाव-प्रचार


धन सफलता प्रेम

एक दिन एक औरत अपने घर के बाहर आई और उसने तीन संतों को अपने घर के सामनेदेखा। वह उन्हें जानती नहीं थी। औरत ने कहा – “कृपया भीतर आइये और भोजन ...करिये।” संत बोले – “क्या तुम्हारे पति घर पर हैं?” औरत ने कहा – “नहीं, वे अभी बाहर गए हैं।” संत बोले – “हम तभी भीतर आयेंगे जब वह घर पर हों।” शाम को उस औरत का पति घर आया और औरत ने उसे यह सब बताया। औरत के पति ने कहा – “जाओ और उनसे कहो कि मैं घर आ गया हूँ और उनको आदरसहित बुलाओ।” औरत बाहर गई और उनको भीतर आने के लिए कहा। संत बोले – “हम सब किसी भी घर में एक साथ नहीं जाते।” “पर क्यों?” – औरत ने पूछा। उनमें से एक संत ने कहा – “मेरा नाम धन है” – फिर दूसरे संतों की ओर इशारा कर केकहा – “इन दोनों के नाम सफलता और प्रेम हैं। हममें से कोई एक ही भीतर आसकता है। आप घर के अन्य सदस्यों से मिलकर तय कर लें कि भीतर किसे निमंत्रितकरना है।” औरत ने भीतर जाकर अपने पति को यह सब बताया। उसका पति बहुत प्रसन्नहो गया और बोला – “यदि ऐसा है तो हमें धन को आमंत्रित करना चाहिए। हमारा घरखुशियों से भर जाएगा।” लेकिन उसकी पत्नी ने कहा – “मुझे लगता है कि हमें सफलता को आमंत्रितकरना चाहिए।” उनकी बेटी दूसरे कमरे से यह सब सुन रही थी। वह उनके पास आई और बोली – “मुझेलगता है कि हमें प्रेम को आमंत्रित करना चाहिए। प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं है।” “तुम ठीक कहती हो, हमें प्रेम को ही बुलाना चाहिए” – उसके माता-पिता ने कहा। औरत घर के बाहर गई और उसने संतों से पूछा – “आप में से जिनका नाम प्रेम है वेकृपया घर में प्रवेश कर भोजन ग्रहण करें।” प्रेम घर की ओर बढ़ चले। बाकी के दो संत भी उनके पीछे चलने लगे।औरत ने आश्चर्य से उन दोनों से पूछा – “मैंने तो सिर्फ़ प्रेम को आमंत्रित किया था।आप लोग भीतर क्यों जा रहे हैं?” उनमें से एक ने कहा – “यदि आपने धन और सफलता में से किसी एक को आमंत्रितकिया होता तो केवल वही भीतर जाता। आपने प्रेम को आमंत्रित किया है। प्रेमकभी अकेला नहीं जाता। प्रेम जहाँ-जहाँ जाता है, धन और सफलता उसके पीछे जाते हैं।

धन सफलता प्रेम


धन सफलता प्रेम

एक दिन एक औरत अपने घर के बाहर आई और उसने तीन संतों को अपने घर के सामनेदेखा। वह उन्हें जानती नहीं थी। औरत ने कहा – “कृपया भीतर आइये और भोजन ...करिये।” संत बोले – “क्या तुम्हारे पति घर पर हैं?” औरत ने कहा – “नहीं, वे अभी बाहर गए हैं।” संत बोले – “हम तभी भीतर आयेंगे जब वह घर पर हों।” शाम को उस औरत का पति घर आया और औरत ने उसे यह सब बताया। औरत के पति ने कहा – “जाओ और उनसे कहो कि मैं घर आ गया हूँ और उनको आदरसहित बुलाओ।” औरत बाहर गई और उनको भीतर आने के लिए कहा। संत बोले – “हम सब किसी भी घर में एक साथ नहीं जाते।” “पर क्यों?” – औरत ने पूछा। उनमें से एक संत ने कहा – “मेरा नाम धन है” – फिर दूसरे संतों की ओर इशारा कर केकहा – “इन दोनों के नाम सफलता और प्रेम हैं। हममें से कोई एक ही भीतर आसकता है। आप घर के अन्य सदस्यों से मिलकर तय कर लें कि भीतर किसे निमंत्रितकरना है।” औरत ने भीतर जाकर अपने पति को यह सब बताया। उसका पति बहुत प्रसन्नहो गया और बोला – “यदि ऐसा है तो हमें धन को आमंत्रित करना चाहिए। हमारा घरखुशियों से भर जाएगा।” लेकिन उसकी पत्नी ने कहा – “मुझे लगता है कि हमें सफलता को आमंत्रितकरना चाहिए।” उनकी बेटी दूसरे कमरे से यह सब सुन रही थी। वह उनके पास आई और बोली – “मुझेलगता है कि हमें प्रेम को आमंत्रित करना चाहिए। प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं है।” “तुम ठीक कहती हो, हमें प्रेम को ही बुलाना चाहिए” – उसके माता-पिता ने कहा। औरत घर के बाहर गई और उसने संतों से पूछा – “आप में से जिनका नाम प्रेम है वेकृपया घर में प्रवेश कर भोजन ग्रहण करें।” प्रेम घर की ओर बढ़ चले। बाकी के दो संत भी उनके पीछे चलने लगे।औरत ने आश्चर्य से उन दोनों से पूछा – “मैंने तो सिर्फ़ प्रेम को आमंत्रित किया था।आप लोग भीतर क्यों जा रहे हैं?” उनमें से एक ने कहा – “यदि आपने धन और सफलता में से किसी एक को आमंत्रितकिया होता तो केवल वही भीतर जाता। आपने प्रेम को आमंत्रित किया है। प्रेमकभी अकेला नहीं जाता। प्रेम जहाँ-जहाँ जाता है, धन और सफलता उसके पीछे जाते हैं।

धन सफलता प्रेम



श्री राजारामजी महाराज का जीवन परिचय

श्री राजारामजी महाराज जीवन परिचय श्री राजारामजी महाराज का जन्म चैत्र शुल्क ९ संवत १९३९ को, जोधपुर तहसील के गाँव शिकारपुरा में, अंजना कलबी वंश की सिह खांप में एक गरीब किसान के घर हुआ था | जिस समय राजारामजी की आयु लगभग १० वर्ष थी तक राजारामजी के पिता श्री हरिरामजी का देहांत हो गया और कुछ समय बाद माता श्रीमती मोतीबाई का स्वर्गवास हो गया | माता-पिता के बाद राजारामजी बड़े भाई श्री रगुनाथारामजी नंगे सन्यासियों की जमात में चले गए और आप कुछ समय तक राजारामजी अपने चाचा श्री थानारामजी व कुछ समय तक अपने मामा श्री मादारामजी भूरिया, गाँव धान्धिया के पास रहने लगे | बाद में शिकारपुरा के रबारियो सांडिया, रोटी कपडे के बदले एक साल तक चराई और गाँव की गांये भी बिना हाध में लाठी लिए नंगे पाँव २ साल तक राम रटते चराई | गाँव की गवाली छोड़ने के बाद राजारामजी ने गाँव के ठाकुर के घर १२ रोटियां प्रतिदिन व कपड़ो के बदले हाली का काम संभाल लिया | इस समय राजारामजी के होंठ केवल इश्वर के नाम रटने में ही हिला करते थे | श्री राजारामजी अपने भोजन का आधा भाग नियमित रूप से कुत्तों को डालते थे | जिसकी शिकायत ठाकुर से होने पर १२ रोटियों के स्थान पर ६ रोटिया ही देने लगे, फिर ६ मे से ३ रोटिया महाराज, कुत्तों को डालने लगे, तो ३ में से 1 रोटी ही प्रतिदिन भेजना शुरू कर दिया, लेकिन फिर भी भगवन अपने खाने का आधा हिस्सा कुत्तों को डालते थे | इस प्रकार की ईश्वरीय भक्ति और दानशील स्वभाव से प्रभावित होकर देव भारती नाम के एक पहुंचवान बाबाजी ने एक दिन श्री राजारामजी को अपना सच्चा सेवक समझकर अपने पास बुलाया और अपनी रिद्धि-सिद्धि श्री राजारामजी को देकर उन बाबाजी ने जीवित समाधी ले ली | उस दिन ठाकुर ने विचार किया की राजारामजी को वास्तव में एक रोटी प्रतिदिन कम ही हैं और किसी भी व्यक्ति को जीवित रहने के लिए ये काफी नहीं हैं अतः ठाकुर ने भोजन की मात्रा फिर से निश्चित करने के उद्धेश्य से उन्हें अपने घर बुलाया | शाम के समय श्री राजाराम जी इश्वर का नाम लेकर ठाकुर के यहाँ भोजन करने गए | श्री राजारामजी ने बातों ही बातों में ७.५ किलो आटे की रोटिया आरोग ली पर आपको भूख मिटने का आभास ही नहीं हुआ | ठाकुर और उनकी की पत्नी यह देख अचरज करने लगे | उसी दिन शाम से राजारामजी हाली का काम ठाकुर को सोंपकर तालाब पर जोगमाया के मंदिर में आकर राम नाम रटने लगे | उधर गाँव के लोगो को चमत्कार का समाचार मिलने पर उनके दर्शनों के लिए ताँता बंध गया | दुसरे दिन राजारामजी ने द्वारिका का तीर्थ करने का विचार किया और दंडवत करते हुए द्वारिका रवाना हो गए | ५ दिनों में शिकारपुरा से पारलू पहुंचे और एक पीपल के पेड़ के नीचे हजारो नर-नारियो के बिच अपना आसन जमाया और उनके बिच से एकाएक इस प्रकार से गायब हुए की किसी को पता ही नहीं लगा | श्री राजारामजी १० माह की द्वारिका तीर्थ यात्रा करके शिकारपुरा में जोगमाया के मंदिर में प्रकट हुए और अद्भुत चमत्कारी बाते करने लगे, जिन पर विश्वास कर लोग उनकी पूजा करने लग गए | राजारामजी को लोग जब अधिक परेशान करने लग गये तो ६ मास का मोन रख लिया | जब राजारामजी ने शिवरात्री के दिन मोन खोला तक लगभग ८०००० वहां उपस्थित लोगो को व्याखान दिया और अनेक चमत्कार बताये जिनका वर्णन जीवन चरित्र नामक पुस्तक में विस्तार से किया गया हैं | महादेवजी के उपासक होने के कारण राजारामजी ने शिकारपुरा में तालाब पर एक महादेवजी का मंदिर बनवाया, जिसकी प्रतिष्ठा करते समय अनेक भाविको व साधुओ का सत्कार करने के लिए प्रसाद के स्वरूप नाना प्रकार के पकवान बनाये जिसमे २५० क्विंटल घी खर्च किया गया | उस मंदिर के बन जाने के बाद श्री राजारामजी के बड़े भाई श्री रगुनाथारामजी जमात से पधार गये और दो साल साथ तपस्या करने के बाद श्री रगुनाथारामजी ने समाधी ले ली | बड़े भाई की समाधी के बाद राजारामजी ने अपने स्वयं के रहने के लिए एक बगेची बनाई, जिसको आजकल श्री राजारामजी आश्रम के नाम से पुकारा जाता हैं | श्री राजारामजी महाराज ने संसारियों को अज्ञानता से ज्ञानता की ओर लाने के उद्धेश्य से बच्चों को पढाने-लिखाने पर जोर दिया | जाती, धर्म, रंग आदि भेदों को दूर करने के लिए समय-समय पर अपने व्याखान दिये | बाल विवाह, कन्या विक्रय, मृत्यु भोज जैसी बुराईयों का अंत करने का अथक प्रयत्न किया | राजारामजी ने लोगो को नशीली वस्तुओ के सेवन से दूर रहने, शोषण विहीन होकर धर्मात्न्माओ की तरह समाज में रहने का उपदेश दिया | राजारामजी एक अवतारी महापुरुष थे, इस संसार में आये ओर समाज के कमजोर वर्ग की सेवा करते हुए, श्रावण वद १४ संवत २००० को इस संसार को त्याग करने के उद्धेश्य से जीवित समाधि ले ली |

श्री राजारामजी महाराज का जीवन परिचय


गुरुवार, 29 जनवरी 2015

अकबरके विरुद्ध धर्मयुद्ध पुकारनेवाले महाराणा प्रताप !

वर्ष १५६८ में अकबर बादशाहने चित्तौडपर आक्रमण किया तथा बडी मात्रामें राजपूत महिला-पुरुषोंकी हत्या की । चित्तौडपर विजय प्राप्तकर वह वापस दिल्ली चला गया । चित्तौडकी सर्व राजपूत स्त्रियोंने जोहार किया तथा आत्मबलिदान किया । उस समय मेवाडके राजा उदयसिंह युद्धमें मारे गए । उनका पुत्र महाराणा प्रतापप्रतिशोधसे जल रहा था । मेवाडमें महाराणा प्रतापने अकबरके विरुद्ध धर्मयुद्ध पुकारा । वर्ष १५७२ में मेवाड राज्यके अधिपतिके रूपमें स्वयंका राज्याभिषेक करवाया । महाराणा प्रतापका नाश करनेकी अकबरकी योजना ! इस कालावधिमें अकबरने भारतके बडे-बडे राजाओंपर विजय प्राप्त की तथा दिल्लीकी मुगल सत्ता बलवान बनाई । महाराणा प्रताप एकमात्र बलवान तथा वीर राजा थे । उनसे मुगल सत्ताको भय था, यह ध्यानमें आनेपर महाराणा प्रतापका नाशकर मुगल सत्ताको भयमुक्त करनेका अकबरने निश्चय किया । महाराणा प्रतापपर आक्रमण करनेके लिए अकबरने अपने दरबारके प्रमुख सेनापति मानसिंहको एक लक्ष(लाख) घुडसवार, नई बंदूकें, बाण इत्यादि शस्त्र तथा अनगिनत हाथी, घोडे, रथ तथा पैदल सेना देकर भेजा । महाराणा प्रतापके पास केवल तीन सहस्र (हजार) घुडसवारीवाले वीर योद्धा थे । महाराणा प्रतापने विचार किया तथा अरावली पर्वत स्थित ‘हलदी घाटी’ नामक दुर्गम स्थानपर मोर्चा बांधा । मानसिंहके पास विशाल सेना थी । इसलिए उसने एक ही समयमें चारों ओरसे महाराणा प्रतापपर आक्रमण किया । इस आक्रमणमें महाराणा प्रताप तथा उनकी सेनाने वीरतासे युद्ध किया तथा विशाल मुगल सेनाको पराजित किया । अंतिम क्षणतक शत्रुसे कडाईसे जूझना इस युद्धमें महाराणा प्रतापने मुगल सेनाको इतना पीडित किया कि मुगलोंने महाराणा प्रतापका प्रतिकार नहीं किया । महाराणा प्रतापको पकडना मानसिंहके लिए संभव नहीं हुआ वह वापस दिल्ली चला गया । इस युद्धके पश्चात महाराणा प्रतापने पुनः सेना एकत्रित की तथा युद्धकी सिद्धता की । तत्पश्चात महाराणा प्रतापने अकबरके साथ तीन बार युद्ध किया । इन तीनों युद्धोंमें अकबर महाराणा प्रतापको पराजित नहीं कर सका तथा उन्हें पकड भी नहीं सका । परिस्थितिवश उन्हें जंगलमें रहना पडा तथा धैर्यपूर्वक अंततक शत्रुसे जूझनेवाले इस वीर पुरुषका वर्ष १५९७ में बडी व्याधिके कारण अंत हुआ ।

अकबरके विरुद्ध धर्मयुद्ध पुकारनेवाले महाराणा प्रताप !


चुनावी खटका.

बींद मरौ बींदणी मरौ, बांमण रै टक्कौ त्यार।

चुनावी खटका.

बींद मरौ बींदणी मरौ, बांमण रै टक्कौ त्यार।

चुनावी खटका.


mumbai

mumbai ek sapno ki nagri hai ,yaha  day and night me kush fark nahi hota hai ,

*सीनली गाँव रै साथ में,जनम मरण रो सीर । बिन सरपंचा रै भायला,कुत्तिया खावै खीर * निज गाँव नै छोड कर,पर गाँव अपणाय । ऐडै पूतां नै देख , सीनली गाँव लजाय ॥ @ पंचायत तो मोकळी,सरपंचा बैठिया मून । बिन सरपंचा रै भायला, सीनली गाँव है सून सरपंच बणायो बाप जी, भूल गए सीनली गाँव । बिन सरपंचा रै गाँव तो,बिन देवळ रो थान


*सीनली गाँव रै साथ में,जनम मरण रो सीर । बिन सरपंचा रै भायला,कुत्तिया खावै खीर *निज गाँव नै छोड कर,पर गाँव अपणाय । ऐडै पूतां नै देख , सीनली गाँव लजाय ॥@पंचायत तो मोकळी,सरपंचा बैठिया मून । बिन सरपंचा रै भायला, सीनली गाँव है सून सरपंच बणायो बाप जी, भूल गए सीनली गाँव । बिन सरपंचा रै गाँव तो,बिन देवळ रो थान


राज्य का भाग्य निर्घारण करने वालों को ही पता नहीं कि सरकारी स्कूलों में बच्चे ठीक से नहीं पढ़ पाते। उन्हें दस तक के पहाड़े तक याद नहीं। यह बात हमारी माननीया की समझ में नहीं आती लेकिन अपने जैसे कूटमगजों को बखूबी समझ आती है। अजी बच्चों को पढ़ना तो तब आवै जब उन्हें कोई पढ़ाने वाला हो। सरकारी गुरू और गुरूआनियों को तो दूसरे धंधों से ही फुरसत नहीं। सरकारी स्कूल के मास्टर तो अब उतना ही काम करते हैं जितने से उनकी नौकरी बच सके। अब आपका हमारा वह जमाना लद गया जब अध्यापक बच्चों को अपनी औलाद से ज्यादा प्रेम करते थे। पढ़ाने में जान झोंक देते थे। अगर गृहकार्य करके नहीं ले जाते तो मूर्खसमझावनी नामक दंडिका से झाड़ पिलाया करते थे। हम गुरूओं से बेहद डरते थे। और इतनी सख्ती के बावजूद कभी नहीं सुना कि किसी लड़के ने गुरू की डांट या डर से आत्महत्या की हो लेकिन आज तो जमाना ही बदल गया। एक तो कुल्हाड़े ही भौंथरे हो गए और ऊपर से "धौंक" भी चिकने हैं। अब ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर गुरू सिर्फ नौकरी बजाने ही विद्यालयों में जा रहेे हैं और अपवादस्वरूप जो शिक्षक बच्चों को पढ़ाना भी चाहते हैं तो उनके गले इतना भार लाद दिया जाता है कि "चूं" बोल जाती है। शहरों के सरकारी स्कूलों के हाल बेहाल हैं। नामी सरकारी स्कूल या तो बंद हो चुके हैं या बंद होने के कगार पर हैं। हमारे नीति-निर्माता जानते हैं कि निजी विद्यालयों में साधारण वेतन पर ही जो शिक्षक खूब पढ़ाते हैं। इन्हीं को सरकारी विद्यालयों में बिठा कर स्थाई कर दीजिए। फिर देखिए कैसी बहानेबाजी शुरू हो जाती है। पता नहीं शिक्षक क्यों नहीं चेत रहे। यही हाल रहा तो पांच-दस साल में सारे स्कूल "पीपीपी" मॉडल में चले जाएंगे। स्कूल सरकारी रहेंगे पर उन्हें चलाएंगे ठेकेदार। जो मास्साब आज पैतालीस हजार वेतन उठा रहे हैं उनकी जगह नौ-नौ हजार में पांच शिक्षक रख लिए जाएंगे। वैसे एक उपाय हम बताएं। शासन चलाने का मूल मंत्र है- "भय बिन प्रीत न होय गंुसाई"। बाबा तुलसीदास के इस सीधे से फार्मूले पर क्यों न अमल किया जाए? जिस गुरू या गुरूआणी का रिजल्ट तीन साल लगातार खराब रहे उसे चुपचाप घर बिठा दिया जाए। अगर यह कानून बने तो भैया दस तक के पहाड़ों की छोड़ो बालक तीस तक के पहाड़े न रट डाले तो हमारा नाम बदल देना लेकिन जब नेता ही अध्यापकों को राजनीति के प्यादे बना कर रखते हैं तो फिर बच्चों को कौन पढ़ाएगा? -


राज्य का भाग्य निर्घारण करने वालों को ही पता नहीं कि सरकारी स्कूलों में बच्चे ठीक से नहीं पढ़ पाते। उन्हें दस तक के पहाड़े तक याद नहीं। यह बात हमारी माननीया की समझ में नहीं आती लेकिन अपने जैसे कूटमगजों को बखूबी समझ आती है। अजी बच्चों को पढ़ना तो तब आवै जब उन्हें कोई पढ़ाने वाला हो। सरकारी गुरू और गुरूआनियों को तो दूसरे धंधों से ही फुरसत नहीं। सरकारी स्कूल के मास्टर तो अब उतना ही काम करते हैं जितने से उनकी नौकरी बच सके। अब आपका हमारा वह जमाना लद गया जब अध्यापक बच्चों को अपनी औलाद से ज्यादा प्रेम करते थे। पढ़ाने में जान झोंक देते थे। अगर गृहकार्य करके नहीं ले जाते तो मूर्खसमझावनी नामक दंडिका से झाड़ पिलाया करते थे। हम गुरूओं से बेहद डरते थे। और इतनी सख्ती के बावजूद कभी नहीं सुना कि किसी लड़के ने गुरू की डांट या डर से आत्महत्या की हो लेकिन आज तो जमाना ही बदल गया। एक तो कुल्हाड़े ही भौंथरे हो गए और ऊपर से "धौंक" भी चिकने हैं। अब ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर गुरू सिर्फ नौकरी बजाने ही विद्यालयों में जा रहेे हैं और अपवादस्वरूप जो शिक्षक बच्चों को पढ़ाना भी चाहते हैं तो उनके गले इतना भार लाद दिया जाता है कि "चूं" बोल जाती है। शहरों के सरकारी स्कूलों के हाल बेहाल हैं। नामी सरकारी स्कूल या तो बंद हो चुके हैं या बंद होने के कगार पर हैं। हमारे नीति-निर्माता जानते हैं कि निजी विद्यालयों में साधारण वेतन पर ही जो शिक्षक खूब पढ़ाते हैं। इन्हीं को सरकारी विद्यालयों में बिठा कर स्थाई कर दीजिए। फिर देखिए कैसी बहानेबाजी शुरू हो जाती है। पता नहीं शिक्षक क्यों नहीं चेत रहे। यही हाल रहा तो पांच-दस साल में सारे स्कूल "पीपीपी" मॉडल में चले जाएंगे। स्कूल सरकारी रहेंगे पर उन्हें चलाएंगे ठेकेदार। जो मास्साब आज पैतालीस हजार वेतन उठा रहे हैं उनकी जगह नौ-नौ हजार में पांच शिक्षक रख लिए जाएंगे। वैसे एक उपाय हम बताएं। शासन चलाने का मूल मंत्र है- "भय बिन प्रीत न होय गंुसाई"। बाबा तुलसीदास के इस सीधे से फार्मूले पर क्यों न अमल किया जाए? जिस गुरू या गुरूआणी का रिजल्ट तीन साल लगातार खराब रहे उसे चुपचाप घर बिठा दिया जाए। अगर यह कानून बने तो भैया दस तक के पहाड़ों की छोड़ो बालक तीस तक के पहाड़े न रट डाले तो हमारा नाम बदल देना लेकिन जब नेता ही अध्यापकों को राजनीति के प्यादे बना कर रखते हैं तो फिर बच्चों को कौन पढ़ाएगा? -


राज्य का भाग्य निर्घारण करने वालों को ही पता नहीं कि सरकारी स्कूलों में बच्चे ठीक से नहीं पढ़ पाते। उन्हें दस तक के पहाड़े तक याद नहीं। यह बात हमारी माननीया की समझ में नहीं आती लेकिन अपने जैसे कूटमगजों को बखूबी समझ आती है। अजी बच्चों को पढ़ना तो तब आवै जब उन्हें कोई पढ़ाने वाला हो। सरकारी गुरू और गुरूआनियों को तो दूसरे धंधों से ही फुरसत नहीं। सरकारी स्कूल के मास्टर तो अब उतना ही काम करते हैं जितने से उनकी नौकरी बच सके। अब आपका हमारा वह जमाना लद गया जब अध्यापक बच्चों को अपनी औलाद से ज्यादा प्रेम करते थे। पढ़ाने में जान झोंक देते थे। अगर गृहकार्य करके नहीं ले जाते तो मूर्खसमझावनी नामक दंडिका से झाड़ पिलाया करते थे। हम गुरूओं से बेहद डरते थे। और इतनी सख्ती के बावजूद कभी नहीं सुना कि किसी लड़के ने गुरू की डांट या डर से आत्महत्या की हो लेकिन आज तो जमाना ही बदल गया। एक तो कुल्हाड़े ही भौंथरे हो गए और ऊपर से "धौंक" भी चिकने हैं। अब ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर गुरू सिर्फ नौकरी बजाने ही विद्यालयों में जा रहेे हैं और अपवादस्वरूप जो शिक्षक बच्चों को पढ़ाना भी चाहते हैं तो उनके गले इतना भार लाद दिया जाता है कि "चूं" बोल जाती है। शहरों के सरकारी स्कूलों के हाल बेहाल हैं। नामी सरकारी स्कूल या तो बंद हो चुके हैं या बंद होने के कगार पर हैं। हमारे नीति-निर्माता जानते हैं कि निजी विद्यालयों में साधारण वेतन पर ही जो शिक्षक खूब पढ़ाते हैं। इन्हीं को सरकारी विद्यालयों में बिठा कर स्थाई कर दीजिए। फिर देखिए कैसी बहानेबाजी शुरू हो जाती है। पता नहीं शिक्षक क्यों नहीं चेत रहे। यही हाल रहा तो पांच-दस साल में सारे स्कूल "पीपीपी" मॉडल में चले जाएंगे। स्कूल सरकारी रहेंगे पर उन्हें चलाएंगे ठेकेदार। जो मास्साब आज पैतालीस हजार वेतन उठा रहे हैं उनकी जगह नौ-नौ हजार में पांच शिक्षक रख लिए जाएंगे। वैसे एक उपाय हम बताएं। शासन चलाने का मूल मंत्र है- "भय बिन प्रीत न होय गंुसाई"। बाबा तुलसीदास के इस सीधे से फार्मूले पर क्यों न अमल किया जाए? जिस गुरू या गुरूआणी का रिजल्ट तीन साल लगातार खराब रहे उसे चुपचाप घर बिठा दिया जाए। अगर यह कानून बने तो भैया दस तक के पहाड़ों की छोड़ो बालक तीस तक के पहाड़े न रट डाले तो हमारा नाम बदल देना लेकिन जब नेता ही अध्यापकों को राजनीति के प्यादे बना कर रखते हैं तो फिर बच्चों को कौन पढ़ाएगा? -