गुरुवार, 29 जनवरी 2015
राज्य का भाग्य निर्घारण करने वालों को ही पता नहीं कि सरकारी स्कूलों में बच्चे ठीक से नहीं पढ़ पाते। उन्हें दस तक के पहाड़े तक याद नहीं। यह बात हमारी माननीया की समझ में नहीं आती लेकिन अपने जैसे कूटमगजों को बखूबी समझ आती है। अजी बच्चों को पढ़ना तो तब आवै जब उन्हें कोई पढ़ाने वाला हो। सरकारी गुरू और गुरूआनियों को तो दूसरे धंधों से ही फुरसत नहीं। सरकारी स्कूल के मास्टर तो अब उतना ही काम करते हैं जितने से उनकी नौकरी बच सके। अब आपका हमारा वह जमाना लद गया जब अध्यापक बच्चों को अपनी औलाद से ज्यादा प्रेम करते थे। पढ़ाने में जान झोंक देते थे। अगर गृहकार्य करके नहीं ले जाते तो मूर्खसमझावनी नामक दंडिका से झाड़ पिलाया करते थे। हम गुरूओं से बेहद डरते थे। और इतनी सख्ती के बावजूद कभी नहीं सुना कि किसी लड़के ने गुरू की डांट या डर से आत्महत्या की हो लेकिन आज तो जमाना ही बदल गया। एक तो कुल्हाड़े ही भौंथरे हो गए और ऊपर से "धौंक" भी चिकने हैं। अब ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर गुरू सिर्फ नौकरी बजाने ही विद्यालयों में जा रहेे हैं और अपवादस्वरूप जो शिक्षक बच्चों को पढ़ाना भी चाहते हैं तो उनके गले इतना भार लाद दिया जाता है कि "चूं" बोल जाती है। शहरों के सरकारी स्कूलों के हाल बेहाल हैं। नामी सरकारी स्कूल या तो बंद हो चुके हैं या बंद होने के कगार पर हैं। हमारे नीति-निर्माता जानते हैं कि निजी विद्यालयों में साधारण वेतन पर ही जो शिक्षक खूब पढ़ाते हैं। इन्हीं को सरकारी विद्यालयों में बिठा कर स्थाई कर दीजिए। फिर देखिए कैसी बहानेबाजी शुरू हो जाती है। पता नहीं शिक्षक क्यों नहीं चेत रहे। यही हाल रहा तो पांच-दस साल में सारे स्कूल "पीपीपी" मॉडल में चले जाएंगे। स्कूल सरकारी रहेंगे पर उन्हें चलाएंगे ठेकेदार। जो मास्साब आज पैतालीस हजार वेतन उठा रहे हैं उनकी जगह नौ-नौ हजार में पांच शिक्षक रख लिए जाएंगे। वैसे एक उपाय हम बताएं। शासन चलाने का मूल मंत्र है- "भय बिन प्रीत न होय गंुसाई"। बाबा तुलसीदास के इस सीधे से फार्मूले पर क्यों न अमल किया जाए? जिस गुरू या गुरूआणी का रिजल्ट तीन साल लगातार खराब रहे उसे चुपचाप घर बिठा दिया जाए। अगर यह कानून बने तो भैया दस तक के पहाड़ों की छोड़ो बालक तीस तक के पहाड़े न रट डाले तो हमारा नाम बदल देना लेकिन जब नेता ही अध्यापकों को राजनीति के प्यादे बना कर रखते हैं तो फिर बच्चों को कौन पढ़ाएगा? -
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें