रविवार, 8 फ़रवरी 2015

राणा हम्मीर

राणा हम्मीर के वारे में एक दोहे की यह पंक्ति प्रसिद्ध है- ‘सिंहगवन सज्जन वचन कदलि फरै इक बार। तिरिया तेल हम्मीर हठ चढ़ै न दूजी बार।।’ अलाउद्दीन खिलजी ने एक बार अपने एक मंगोल सरदार कि सामान्य अपराध पर कुपित होकर उसे प्राणदंड देने की घोषणा कर दी थी। वह सरदार दिल्ली छोड़कर तुरंत भाग खड़ा हुआ। अपनी प्राण रक्षा के लिए वह अनेक स्थानों पर गया, किंतु बादशाह के डर से किसी ने उसे शरण देने का साहस नहीं किया। उन दिनों अलाउद्दीन खिलजी से शत्रुता मोल लेने का साहस कोई भी राजा नहीं कर सकता था। इस तरह प्राण रक्षा की उम्मीद में वह सरदार भटकता हुआ रणथम्भौर पहुंचा। राणा हम्मीर ने उसका स्वागत किया और कहा- ‘आप मेरे यहां सुख पूर्वक रहें, राजपूत अपना सिर देकर भी अपने शरणागत की रक्षा करना बखूबी जानता है। यहां आपको किसी भी प्रकार का संकट नहीं है इस बात से आप निश्चिंत रहें।’ बादशाह अलाउद्दीन को जब यह समाचार मिला तो उसने राणा हम्मीर के पास अपने दूत के माध्यम से संदेश भेजा- शाही अपराधी को शरण देना दिल्ली के तख्त की तौहीन करना है। उसको लौटा दो। ऐसा नहीं करने के हालत में हम रणथम्भौर के ईंट से ईंट बजा देंगे। इस पर राणा हम्मीर का उत्तर था- ‘राज्य और प्राणभय से हम धर्म को नहीं छोड़ेंगे। शरणागत की रक्षा करना हमारा धर्म है और हम अनादिकाल से ही अपने धर्म का पालन करते आए हैं तो आज कैसे इसे त्याग दूं? हम किसी भी हाल में अपने शरणागत को नहीं त्याग सकते, ऐसा करना हमारे धर्म के प्रतिकूल है।’ यद्यपि कुछ राजपूत सरदारों ने भी सुझाव दिया कि बादशाह से शत्रुता लेना ठीक नहीं है। परन्तु राणा हम्मीर अपने निश्चय पर अडिग रहे। अलाउद्दीन ने राणा का उत्तर पाकर युद्ध के लिए भारी सेना भेज दिया। किंतु रणथम्भौर का दुर्ग उसकी सेना के लिए लोहे का चना सिद्ध हुआ। राजपूतों ने शाही सेना के छक्के छुड़ा दिए। अंत में शाही सेना ने दुर्ग पर घेरा डाल दिया। यह घेरा लगातार पांच साल तक रहा। रणथम्भौर के दुर्ग में भोजन समाप्त हो गया। मंगोल सरदार ने कई बार राणा से कहा कि उसे बादशाह के पास जाने दिया जाय, उसके कारण राणा अपना विनाश न कराएं, किंतु राणा ने उसे हर बार यह कह कर रोक दिया कि आपको एक राजपूत ने शरण दी है। प्राण रहते आपको वहां नहीं जाने दूंगा। दुर्ग में उपवास चल रहा था। एक बड़ी चिता बनाई गई दुर्ग के प्रसंग में। दुर्ग के भीतर सब नारियां उस प्रज्ज्वलित चिता में प्रसन्नतापूर्वककूदकर सती हो गईं। पुरुषों ने केशरिया वस्त्र पहने और दुर्ग का द्वार खोलकर शत्रु पर एकदम से टूट पड़े। दोनों ओर से भारी मार काट मच गई। लेकिन राजपूतों में से कोई भी जीवित नहीं बचा उस युद्ध में, सिवा उस मंगोल सरदार के। अंत में वह सरदार पकड़ा गया। जब उसे अलाउद्दीन के सामने पेश किया गया तो उसने सरदार से पूछा- यदि तुम्हे छोड़ दूं तो तुम क्या करोगे? सरदार बोला- ‘हम्मीर के संतानों को दिल्ली का तख्त देने के लिए तुमसे जिंदगी भर लड़ूंगा।’ उसके इस संकल्प युक्त बात को सुनकर अलाउद्दीन ने उसे भी मार डाला। इतना नर-संहार स्वीकार कर लिया राणा हम्मीर ने पर अपने शरणागत पर जिंदा रहते किसी भी प्रकार का आंच नहीं आने दिया और न ही शरणागत धर्म को छोड़ा।

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