सोमवार, 11 मई 2015

Veer Tejaji maharaj

Jai Veer Teja . सातवीं शताब्दी के उतरार्ध्द में चक्रवर्ती सम्राट हर्षवर्धन के निधन के बाद भारत अनेक जनपदों में विभक्त हो गया। वर्तमान नागौर क्षेत्र, जो नागवंच्ची जाटों के गणों की अधिकता के कारण प्राचीनकाल में नगाणा प्रदेश कहलाता था, जांगल प्रदेश से लेकर अजमेर-भीलवाड़ा तक फैला था। इसी नागाणा प्रदेच्च के खरनाल गण के शासक बोहित राव धौल्या गौत्री जाट थे। खरनाल गणपति बोहित राव के पुत्र ताहड देव की छठी संतान के रुप में कुंवर तेजपाल का जन्म विक्रम सम्वत्‌ ११३०, माद्य शुक्ला , चतुर्दशि वार गुरुवार तदनुसार २९ जनवरी १०७४ ई. के दिन हुआ। इनकी माता रानी रामकुंवरी थी। प्राचीन काल में बाल विवाह प्रतिष्ठा का सूचक था अतः एक बार जब ताहड जी पुष्कर स्नान करने गये तब वहीं पर कुंवर तेजपाल का विवाह पनेर निवासी रायमलजी झांझर की पुत्री पेमल के साथ कर दिया। कुंवर तेजपाल जब बडे हुए तो उन्होनें किसानों को कृषि की नई-नई तकनीकें बताई। पहले किसान बीज उछालकर खेती करते थे, उन्हें हल द्वारा जमीन में अनाज बीजकर खेती करना व फसल को कतार में बोना सिखाया। इसलिए कुंवर तेजपाल के परिवार के लोग वर्तमान खरनाल से लेकर मूण्डवा के बीच विच्चाल भू-भाग पर खेती करते थे। लोकगीतों में भी गाया जाता है-''तेजा बारह ऐ कोसी री जोती आवडी।'' एक बार बरसात के मौसम में खेती करते कुंवर तेजपाल अपनी भाभी के ताना देने पर पत्नी पेमल को पाने ससुराल पनेर गये। उसी रात लाछा नामक गूजरी की गायें डकेत चुराकर ले गये थे। उस वक्त पच्चुधन अमूल्य होता था। लाछा पूरे गांव में सहायतार्थ फिरती है, परन्तु चोरों के भय से उसकी कोई नही सुनता है। आखिर में यह कर्तव्य भार तेजाजी पर आता है। क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए द्रास्त्र सज्जित तेजाजी गायों की'वार'चढ़ चोरो का पीछा करते है। उसी वक्त मार्ग में एक काला नाग जंगल की आग में अधजला तडप रहा था। तेजाजी उसे भाले द्वारा अग्नि से बाहर फेंकते है, लेकिन काले नाग को बच जाने का पश्चाताप होता है। नाग नाराज होकर कहता है- ''तेजा! मेरी जीवन संगिनी चली गयी, मैं भी जल जाना चाहता था, तूने क्यों बचाया ? मैं तुझे डसुंगा।'' तेजाजी द्वारा गायें छुड़ाकर वापिस बम्बी पर आने का कहने पर नागराज को विच्च्वास नही होता है। तब तेजाजी उसे सूरज-चॉद व सूखे खेजडे की साख भराकर वचन देते है कि मैं हर हाल में वापिस लौटूंगा। तेजाजी वापिस लौट आने का वचन देकर सुरसुरा की घाटी में पहुंचते है जहां चोरों के साथ भयंकर संग्राम होता है। १५० चोरों को मारकर तेजाजी गायें मुक्त करवातें है लेकिल युध्द में अत्यधिक घायल भी हो जाते है। गायें गूजरी को सौंप वचनबध्द नायक सांप की बम्बी पर पहुंच जाता है। कुंवर तेजपाल की वचनबध्दता से नाग अत्यन्त प्रभावित होता है। वह तेजाजी को डंसना नही चाहता है और कहता है -''तेजा! तेरा पूरा शरीर लहूलुहान है, कहां डंक मारु ? ना ग राज़ कुंवारी जगह बिना नही डसता।''तब तेजाजी अपने मुह की कुंवारी जीभ नागराज के सामने कर भाला जमीन में गाड कर कहते है-''नागराज! तेजा कच्ची माटी का नही बना है। मुझे वचन हार मत कर और जीभ पर डस ले।''इस प्रकार भादवा सुद दच्चमीं सम्वत्‌ ११६० तद्‌नुसार २८ अगस्त ११०३ ई. को वीर तेजाजी वीर गति को प्राप्त हुए। सर्पदंच्च से तेजाजी की देह वहीं शांत होती है, परन्तु सर्पदंच्च से पीडित व्यक्ति तेरी तांती से ठीक होंगे, नागराज से यह वर पाते हैं। इस प्रकार प्राण देकर भी वचन निभाने के कारण तेजाजी सत्यवादी वीर कहलाये। तेजाजी के स्वर्गारोहण के पच्च्चात्‌ की कथा अत्यन्त कारुणिक हैं। सुख-दुख में साथ देने वाली घोङी'लीलण' शोक विहल होकर तेजाजी के पार्थिव भारीर और पैरों को आंसुओं से धोती है फिर खरनाल आकर तेजाजी के स्वर्गारोहण का सन्देच्च देती है। उधर आंसू देवासी तेजाजी द्वारा दिया गया साफा व अन्य सामान पत्नी पेमल तक पहुचंता है। पति के बिछुडने का गम पेमल सहन नही कर पाती है और उस समय की परम्परानुसार पति की देह गोद में लेकर सुरसुरा में सती हो जाती है। शोकमग्न गांव खरनाल के पूर्व में १ कि.मी. दूर तालाब की पाल पर तेजाजी की बहन राजल भी सती हो गई। यहां बना बूंगरी माता का मंदिर आज भी भाई-बहन के अपूर्व प्यार की याद दिलाता है। खरनाल आने वाला हर भक्त बुंगरी माता के अवच्च्य आता है। अपने मालिक के वियोग का दुःख सहन न कर सकने वाली तेजाजी की प्रिय घोडी लीलण ने यहीं पर प्राण त्याग दिये, जिसका नाम आज भी तेजाजी के भक्त बडी भान से अपने घरों व वाहनों पर लिखवाते हैं। .

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