गुरुवार, 2 अगस्त 2018

गाँवो का वह भी दौर था और अब भी है


।। राम राम सा। ।
मित्रो आजकल लोग सोशलमीडिया पर गौ रक्षक गौ सेवक की राजनीति तो खूब करते देखते है पर उस मे से कुछेक को छोड़ कर सब दुध डेयरी से ही लाते हैं उनका मकसद सिर्फ गायों के नाम पर राजनिती करना है जब दुध वाला दो रुपया भी ज्यादा मांग ले तो यही बोलेगा कि  अरे ! इतने कैसे भाव बढा दिये है भाई  गाय पालने वाले का घर भी कभी कभी देखा करो तो मालुम पडेगा अब मशीनरी युग है दुध घी सब केमिकल से बनाये जाते हैं लोगो को सिर्फ सस्ता चाहिये चाहे जहर ही क्यो ना हो ।

मै अपने गांव की बात बता रहा हूँ आज से 32 ,33  साल पहले बचपन में मुझे अपने गांव के लगभग हर दरवाजे पर एक जोड़ी  बैल  एक-दो गाय-भैंसें और उनके बछ्डे  जरूर दिख जाते थे। कुछ  घरो मे तो 25 से 40 तक गायें भेंसे हुआ करती थी   उस  समय मे अपने  गावँ मे जितनी गायें थी उनसे आज 25% भी नही है क्योकि अब मशीनरी युग है  आजकल तो नजारा बदला हुआ है  ट्रैक्टरों, थ्रेशरों और हार्वहस्टरों की आवक के साथ बैल पहले ही गांव के लिए गैरजरूरी हो चुके थे , अब अचानक देसी गायें भी दिखनी बंद हो गईं। फिर भी भैंसें पहले जितनी ही नजर आ रही है, और कुछ लोगो के यहां जर्सी गायें,आ गई है जिनके नखरे उठाना सबके वश की बात नहीं है। गांव के हिसाब से कुछ  परिवारों में ही जर्सी गाये हैं, जर्सी गायों के नखरे भी कम नही होते है  उनके खाने में भी आधा अनाज, गुड़ और दलहन होना चाहिए, जिसकी सहूलियत तो प्रहलाद भाई जैसे  परिवारों में ही होती है।
गांव में देसी गायें इतनी कम दिखने का कारण  सीधा है कि झंझट ज्यादा है, फायदा कुछ नहीं। एक तो वह दूध ही बहुत कम देती हैं, दूसरे दुधवाले  गाय का दूध भैंस की दो-तिहाई कीमत में ले जाते हैं, तीसरा कारण बछड़े अब स्थायी सिरदर्द बन गए हैं। दूध छोड़ने के बाद उन्हें बांधकर खिलाना आसान नहीं होता। चौमासे के समय  छुट्टा छोड़ दें तो रोज कोई न कोई झगड़ने चला आता है। किसी के खेत में चला जाए और वह उसे बेरहमी से पीटने लगे, यह भी देखते नहीं बनता। भैंस के नर बच्चे पाड़ा पर लोगों की नजर अटकी रहती है की कब ये भेन्स दुध देना बन्द करे और कब कसाई के यहाँ जाये ।
आजकल शहरो मे तो बछड़ा पैदा होता है उनके लिए दूध ही इतना कम छोड़ा जाता है कि साल पूरा होने से पहले दस में से नौ मर जाते है। फिर भी बच गए तो रात में कहीं दूर ले जाकर  छोड़ दिया जाता है। कुछ किसान उन्हें कसाइयों को भी बेचते होंगे, पर अपने गांव में मैंने किसी को ऐसा करते नहीं देखा।
आजकल, गोवंश का मामला अलग है। बछड़े के साथ पाड़े जैसा सुलूक नहीं किया जा सकता। बहुत से लोग  गाय-भैंस सिर्फ दूध बेचने के लिए पालते हैं,जब तक गाय  दुध देती तो अच्छी लगती है बाद मे आवारा छोड़ देते है   मैंने छह महीने के बछड़े को दर-दर भटकते देखा है। पहले मेरे  गांव में  कोई बछड़ा डेढ़-दो साल का होने से पहले नहीं छोड़ा जाता था। बचपन मे मेरे घर पर जब गाय या भेंस के बछड़ा पैदा होने पर गुड़  बंटते मैंने अपने घर में ही देखा है। भारत  के हजारों साल लंबे इतिहास में आजकल  गाँवों मे भले ही खेती-किसानो के लिए गैरजरूरी हो गया हो, पर आज भी लोग उसे यूं ही मरने के लिए नहीं छोड़ पाते। इसका कुल नतीजा यह हो गया है कि वह आज गाय पालने से ही हाथ खींचने लगे हैं।  गौरक्षा की चिंता करने वालों को इस पर भी कुछ सोचना चाहिए। सरकार को भी पशु पालन के लिये  कुछ मदद जरुर करनी चाहिये वर्ना आने  वाले दिनों में मे गौ माता के सिर्फ फोटो के ही दर्शन करने पड़ेंगे 
गुमनाराम पटेल सिनली

1 टिप्पणी: