हमारी-आपकी खलिहानसंस्कृति
1 सुपड़ौ
2 छांनणो( खेरणो)
3 छौकनी
सुपड़ा और छांनणा ( खेरणा)दोनों किसानों के उपयोगी यन्त्र रहे हैं।पहले जब फसलें पककर तैयार होती थी, तो सबसे पहले फसलों को बैलगाड़ी ऊंठगाड़ी पर भरकर गांव के पास स्थित खलिहानों लाटो में लाया जाता था ताकि वहां पर फसलों को गाहने का कार्य होता था, समतल भूमि पर साफ सफाई कर सबसे पहले गोलाकार में गोबर मिट्टी से लीपकर एक खलिहान या लाटा बनाया जाता है जो कि आकार में फसलों की मात्रा से तय होता था। लाटौ में फसलें लाकर सुखाई जाती थी... वहां पर फसलें काफी दिनों तक पड़ी रहती थी उसके बाद जिसे मूँग मोठ आदि को चौकनी (ये भी एक यन्त्र है) से अलग करके गाहण करते थे गाँव मे लोग भी कहते थे कि आज अमुक किसान के गाहाण हुआ है। और आजकाल तो खेत मे ही थ्रेसर निकालने के बाद वहाँ पर ही बोरिया भर देते हैं। पहले लाटौ
खलिहान में पड़ी फसल सूखने के बाद उसको गहाई का कार्य होता था जो कि बैलों या ऊंठों से किया जाता था। चांदनी उजाँली रात में दो दो बैलो या ऊंठों की जोड़ियों को आपस में जोतकर गोल गोल घूमाते हुए फसलों की गहाई का काम होता था।कभी कभी इन ऊंठों और ऊन्ठनियो पर कुछ लोग बैठकर सवारी करते हुए गीत गाते हुए देर रात तक गहाई का कार्य करते थे क्योंकि रात की शीतल में फसलों की उड़ने वाली खंख से निजात मिलती थी विशेषकर गवार की खंख तो खतरनाक होती है। बाजरी के सिटियो को बैलगाड़ी जोतकर भी गहाई की जाती थी... बाद मे बढते मशीनरी युग मे किसानो का मददगार ट्रेकटर बना था । जो मूँग मोठ ग्वार बाजरी आदि का गाहन का काम आसान कर दिया था अब तो ये काम थ्रेसर आने के बाद बहुत आसाम हो गया है।
पहले फसलों की गहाई का कार्य होने के बाद फसलों से अनाज अलग करने का काम शुरू होता था जो कि हवाओं पर आधारित होता था।सर्दियों के मौसम में मारवाड़ में हवाओं की गति लगभग तेज नहीं होती हैं इसलिए गाहाई हुई फसलों से अनाज अलग करने के इन सुपड़ौ की जरुरत पड़ती थी.जिस तेज हवा चलती थी, हाली लोग एक तिकोनी लकड़ी की चौकी पर खड़े होकर सुपड़ो की मदद से फसलों को उपंणने का काम में ये सुपड़े कारगर होते थे।ये सुपड़े कंकड फूस को अनाज से अलग कर देते हैं जैसे बाजरी को एक तरफ कर देते थे और बुरी या डूर को अलग कर देते थे।।
ये सुपड़े भी सीखों से मिलकर बने होते हैं...इनको पीछे की तरफ चमड़े से टांक दिया जाता था... सुपड़े की तुलना अक्लमंद आदमी से की जाती थी क्योंकि वह अनाज से अनावश्यक चीजों को अलग कर देता था...यह सूपड़ा हर अनावश्यक और गैर जरूरी चीजें को अलग कर देता है या कभी कभी सूपड़ा साफ भी कर देता है.... राजनीति में इसका प्रयोग होता है... अमूक पार्टी का सूफड़ा साफ हो गया है.... इसलिए सूफड़ा हर घर में आवश्यक होता था.
सुपड़े की ही तरह छांनणा (खेरणा) भी एक उपयोगी यन्त्र था... यह भी फसलों की छनाई के काम आता था... मिट्टी में या खलें में शेष रहीं अनावश्यक चीजों को छांनणे की मदद से अलग कर दिया जाता था... इस प्रकार फसलों को संपूर्ण साफ सफाई कर बोरियों में भरकर बाजार में बिक्री हेतु या बिना बोरियों में भरे अनाज को संग्रह हेतु घरों में बनी वखारियों ,कंणसारों ,सोहरियों ,कोठियों में ले जाया जाता था... उसी अनाज को पीसकर या कूटकर अपने तथा पशुओं के लिए साल भर उपयोग किया जाता था...
पहले गाहणा(गौहणा) बैल,,ऊंट,ऊन्टनियो के द्वारा किया जाता था। बाद मे ट्रेकटर आया अब तो खेत मे ही काम हो जाता है थ्रेसर जो आ गये हैं । पहले गौयणा के बाद धान एकत्र करते थे
उसको माद कहते थे । आदमी व औरते गीत गाती थी ।
बाजरी मूँग तिल ग्वार ज्वार आदि धान साफ करके लाटे मे एक तरफ इकट्ठी करते थे ऊसे पुम्बडा कहते थे और उस पुम्बडा को देखकर लोग अन्दाज लगाते थे की ये बाजरी इतने कली व मण होगी । जिसके लाटे मे गाहण होता था जो एक त्यौहार की तरह मेहमान आते थे ।गाहण में आये हुए सभी लोगों को रात को चूरमा करवाया जाता है। ऊंटो व बैलो को खल खिलाई जाती थी और बहुत ही खुशी मनाई जाती थी । वो गाँव की भाईचारे की एकता का प्रतीक थी जो अब नही रही है इसी प्रकार लाटौ का अन्तरिम कार्य कालर (कराई) जो पशुओं के चारे को सुरक्षित एकत्रित किया जाता था उनको कहते है जो आजकल विलुप्ति की कगार पर है। जिसके यहाँ कलर देनी होती थी वहाँ बहुत से लोग इकट्ठा होते थे। ये भी किसी त्यौहार से कम नही होता था। लोग एक दुसरे की मदद से काम काम करते थे ।
आजकल नयी तकनीक और थ्रेशर के आने से सुपड़े और छांनणे (खेरणे) भी लुप्त हो गये है,
अब खलिहान संस्कृति,खत्म हो
गई है । लाटा और खलिहान,खत्म हो गये गहाई के वे गीत
खत्म हो गए है । बचपन मे जब हम लाटो की रखवाली करने के लिए सुबह जल्दी बाजरे की ठण्डी रोटी व गुड़ लेकर जाते थे वो दिन अभी देखने को नहीं मिलते है।
हमारे गांव के सभी लाटौ व खलिहानों को अतिक्रमण करके लोग खा गये है । और गांवो की खलिहान सस्कृति को नया मशीनरी युग के थ्रेशर खा गए है ।
सुपड़ौ को उदाई खा रही है और छांनणो ( खेरणो ) को जंग खा रहा है ।
गोचर और लाटौ को लोग खा गये है । अब क्या खायेंगे हमे भी पता नहीं है।
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