हिंदी दिवस
हिन्दी हमारी राष्ट्रिय भाषा है
मित्रो हमारे देश मे अनेक भाषाये बोली जाती है और पढाई भी जाती है पर हिन्दी भाषा देश के हर कोने मे मौजूद है जैसे मेरी मातृभाषा राजस्थानी है पर पढाई हमने हिन्दी से ही शुरु की थी । तो मेरी भी मातृ भाषा हिन्दी हो गई घर मे राजस्थानी भाषा बोलते थे और पढाई हिन्दी मे होती थी तो मुझे तीसरी तक हिन्दी भी समझने मे दिखत जरुर हुई थी इसलिये हम तो आज भी राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने मे भरसक प्रयत्न करते रहते है । हमारे समय मे अन्ग्रेजी 6 th से शुरु होती थी पर आजकल नर्सरी से ही शुरु है वो अच्छी बात है मै कोई अन्ग्रेजी भाषा का विरोधी नही हुँ। जिसको जहाँ रहना है उनको वहाँ की भाषा का ज्ञान प्राप्त करना जरुरी है । तो अन्ग्रेजी की भी पढाई करनी जरुरी है ।
जिस भारत में 70 करोड़ से अधिक लोग हिंदी समझते-बोलते हैं ,वहाँ इन दिनों अंग्रेजी को लेकर एक दीवानगी, एक पागलपन की स्थिति दिखाई देती है। गरीब से गरीब आदमी भी अपने बच्चे को इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाना चाहता है।
तथ्य यह भी है कि 10 से 12% भारतीय ही अंग्रेजी समझते हैं ,और इसमें भी महज 3% ही ठीक से अंग्रेजी बोल पाते हैं । पर, बच्चों को अपनी मातृभाषा छोड़ अंग्रेजी की शिक्षा दिलवाने का सपना पूरे समाज का एक बड़ा तबका देखता है।
नजारा यह है कि अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की फीस भी ज्यादा है, पर कुछ हो जाए बच्चे को वहीं भेजना है, आपने अंग्रेजी नहीं सीखी तो कुछ नहीं सीखा । बच्चा गणित न जाने, विज्ञान न जाने, सामान्य विज्ञान और सामान्य जानकारी औसत से भी कम रहे तो कोई बात नहीं , अंग्रेजी का एक्सेंट ठीक होना चाहिए । सोच कर दुःख होता है कि अपने बच्चों को अंग्रेजी बोलते सुन , निहाल होते माता-पिता यह नहीं समझ पाते कि वे बच्चों के सर्वोत्तम विकास की संभावना को किस कदर क्षीण कर रहे हैं ।
बच्चों द्वारा हिंदी ठीक से नहीं समझने पर माँ-बाप ही खुश होकर दूसरों को बताते हैं , “ अरे, यह तो इंग्लिश मीडियम में पढ़ता है, इसको यह सब पता नहीं है ।
अब अगर शिक्षण मनोविज्ञान की बात करें तो 11 वर्ष से पूर्व बच्चों पर किसी दूसरी भाषा को सीखने का दबाव नहीं होना चाहिए, क्योंकि बच्चा सबसे सहज रुप से अपनी मातृभाषा में ही सीख सकता है ।
दूसरी भाषा में शिक्षण की शुरुआत से बच्चे के मानसिक विकास में अवरोध उत्पन्न होता है ।
इसे ऐसा समझें कि घर में मम्मी कहती है ,”बेटा खा ले” ; जबकि विद्यालय में टीचर कहती हैं, “eat properly”! संवेदनशील होकर विचार करने पर हम यह देख पाएंगे कि यह भी बच्चे पर एक दबाव है । विद्यालय का माहौल एक प्रकार का विलायती माहौल या अनजाना माहौल हो जाता है और मनोविज्ञान कहता है कि अनजाना माहौल ही डरावना माहौल होता है ।
घर में एक बच्चा मम्मी, पापा, दादा, दादी, भाई , बहन से हिंदी में जो बात करता है, वही बात विद्यालय में बोलने पर शिक्षक कहते हैं “Don’t talk in vernacular !”
क्या यह एक अजीब और त्रासदपूर्ण सी स्थिति नहीं है ? छोटे बच्चों की बाते तो छोड़ो जब कभी कोलेज या सेकेंडरी स्कुल के बच्चों की आपस की अन्ग्रेजी सुनते है तो बड़ा अजीब लगता है कि ये क्या तो बोल रहा है और वो कैसे समझ रहा है
अंग्रेजी में शिक्षण अगर भारतीय परिपेक्ष्य में फलदाई होता तो उच्च शिक्षण संस्थानों में जहाँ अंग्रेजी में पढ़ाई होती है, वहाँ गुणवत्तायुक्त शिक्षण का सर्वथा अभाव न दिखता । विश्व के 200 शीर्ष विश्वविद्यालयों में भारत के एक भी विश्वविद्यालय का न होना और एशिया के 50 विश्वविद्यालय में भी यहाँ के एक भी नाम का न होना बहुत कुछ कहता है । यहाँ यह ध्यान रक्खें कि भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर के देशों में शिक्षा का माध्यम मूलतः उस देश की राष्ट्रभाषा ही है, अंग्रेजी नहीं ।
शोध से पता चलता है की विश्लेषणात्मक क्षमता और तर्कपूर्ण वैचारिक पद्धति के निर्माण के लिए मातृभाषा में शिक्षण आवश्यक है । मातृभाषा में शिक्षण सिर्फ़ सुविधाजनक और आसान ही नहीं होता, वरन सहज और मजेदार भी होता है।
जहाँ तक हिंदी की बात है तो यह एक सरल, सहज, वैज्ञानिक और प्रवाहवपूर्ण भाषा है, जो मंडारिन के बाद विश्व में सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है । रिपोर्ट तो ऐसी भी आई है कि विश्व के तमाम देशों में बसे हिंदी भाषियों को मिलाकर हिंदी बोलने वालों की संख्या मंडारिन से भी आगे जाती है !
उपरिलिखित तथ्यों के अलावा भी बहुत सी चीजें हिंदी के पक्ष में जाती हैं । इसकी वैज्ञानिकता सिद्ध है, यह जैसी बोली जाती है -वैसी ही लिखी भी जाती है । इसके अलावा,यह सुविधाजनक और आसान है तथा लोकभाषा की विशेषताओं से संपन्न है । एक तथ्य यह भी है कि हिंदी लोचदार भी है और बोलचालजन्य आग्रहों को स्वीकार करने में सर्वथा समर्थ भी । सबसे सुखद तो यह है कि वैश्वीकरण के इस दौर में एक विशाल विश्व बाजार विकसित हो रहा है जिसमें हिंदी की भूमिका उत्तरोतर बढ़ रही है। मानना होगा कि किसी अन्य चीजों की तुलना में बाजार और जनता के सरकारों ने हिंदी को अधिक महत्वपूर्ण और प्रासंगिक भी बनाया है ।
हमारे लिए आवश्यक है कि हिंदी की महत्ता और इसकी शक्ति को पहचानें, न कि किसी विदेशी भाषा के पीछे भागें । ऐसे भी, मातृभाषा से कटना अपनी जड़ों से कटना है , क्योंकि हिंदी हमारे हँसने, खेलने, लड़ने , झगड़ने और स्वप्न देखने की भाषा है । अगर किसी भी कारण से बच्चे इससे विमुख रहते हैं ,तो वे किस तरह से संस्कारित होंगे, यह सहज बुद्धि से समझा जा सकता है। नतिजा आप सब देख ही रहे है और आगे भी देखते रहेंगे
जब हम कभी बैठें रहते है तो इस पर विचार करते है कि आख़िर क्यों हम उस भाषा की महत्ता को दिन-विशेष तक सीमित कर देते हैं, जो हमारे सांस्कृतिक, वैचारिक विकास की रीढ़ है। जिस भाषा के द्वारा हमे कुछ ज्ञान प्राप्त किया है ।
जय हिंदी !
जय हिंद !
जय भारत !
गुमनाराम पटेल सिनली
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