गुरुवार, 27 सितंबर 2018

घर की यादे

जब_भी_घर_की_याद_आती_है_तो_यह_देख_लेता_हूँ

आकड़ों से लिपटते हिरण, टांके में गिरते सूखे बींटोरे...
टांके पर रखा हुआ पापा के हाथ का  मुंह काट रखा फार्च्यून रिफाइंड तेल का डिब्बा जिसके गले में दो चार नट बोल्ट भी लटके हुए है..
आगोर में कुछ जानवरों के खुरों के निशान ऐसे लग रहे कि तीन बजे वाली लू में ही रौंचते हुए वापस लौट गए...
आंगण में उल्टी पड़ी ओडी...
कभी कभी दक्ष ओर लष्मी थोम्बली को पकड़े...रोटी के सूखे टुकड़े चबा रहे है..शाम 7 बजे भोमसगर वाली बस
ट्रेक्टर को धक्का मारकर स्टार्ट करता हुआ मेरा छोटा भाई !!
वहां की धूल भरी आंधियों से रेत से अटी प्रधानमंत्री ग्राम सडक़ योजना की सड़क
पड़ौस वाली दादी माँ घी तोलते समय धूड़ का धड़ा कैसे बना लेती और बरनी में घी धार देखती...
फिर भूणिये सिक्कों के भुड़किये को भखारी में खड्डा करके छिपा देती... आज वो नहीं है...
ओर रात 11 बजे को पड़ोसी सऊयो की ढाणियों से जागरण की भजन मंडली की आवाज ओर सुबह को आसका देते हुए भोपा जी ओर बाजू में चिट्को चबाते हुए छोटे छोटे बच्चे ओर दोपहर के चार बजे ताश खेलते हुए आपके हाथ की चाय !! इतना सा याद कर लेता हूँ
इस दुनियां के तमाम दुख गांव  की चौखट पर ताश खेलने से खत्म हो जाते है...
शहर में तो अंधेरे जैसा आभास होता हैं...
ओर तुझे मालूम मुझे अंधेरा पसंद है... क्योंकि मै इस दुनियां की तमाम जिंदगियां उस अंधेरे में पढता हूँ...
मेरी स्मृति में रेगिस्तान के गांव इस दुनियां में मेरे बेहतरीन प्रेमी है...
जो मेरे लिए अतीत हो गए है...
बस याद रहता है...तो अतीत का वो रेत का रेगिस्तान जहा सुकून की नींद आती थी जो आज के शहरो मे कहा है

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