।। राम राम सा ।।
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मित्रो आज छोटे-छोटे बच्चो को स्कूल जाते हुए देखकर मुझे भी बचपन याद आ गया।
आजकल के बच्चे तैयार होके स्कूल बस आने का इंतजार करने लग जाते हैं।
हमारे वक्त तो पहले दो-तीन थप्पड़ लगा के तैयार किया जाता था । सिर मे लगाने के लिये घी या तिल्ली का तेल ही होता था डाबर या पेरासूट नारियल तेल नही होता था । आजकल की तरह फेन्सी स्कूल बेग नही हुआ करते थे। हाईब्रीड बाजरा की खाली थैली मे ही पाटी कलम देकर जबरदस्ती से स्कूल भेजा जाता था।
ढाणी से 8 बजे रवाना होते थे और 10 बजे तक स्कूल पहुँचते थे, स्कूल सिर्फ 1 किलोमीटर ही दूर थी।
हमारे वक्त तो पहले दो-तीन थप्पड़ लगा के तैयार किया जाता था । सिर मे लगाने के लिये घी या तिल्ली का तेल ही होता था डाबर या पेरासूट नारियल तेल नही होता था । आजकल की तरह फेन्सी स्कूल बेग नही हुआ करते थे। हाईब्रीड बाजरा की खाली थैली मे ही पाटी कलम देकर जबरदस्ती से स्कूल भेजा जाता था।
ढाणी से 8 बजे रवाना होते थे और 10 बजे तक स्कूल पहुँचते थे, स्कूल सिर्फ 1 किलोमीटर ही दूर थी।
घर से तो बहुत ही साफ सुथरे निकलते थे मगर स्कूल पहुँचते-पहुँचते भूत की तरह हो जाते थे।
पाटी हर हप्ते नयी लानी पड़ती थी क्योंकि रास्ते में उड़ाते थे कि सबसे ऊपर किसकी जाये । तब टूट जाती थी। भाटा पेण् खा जाते थे और घरवाले को बोलते थे कि जेब फटी थी इसलिए कहीं गिर गई। हमारे गाँव मे स्कुल के कमरे कच्चे ही थे । बरसात के मौसम मे पानी टपकने से पाटी पर थूक लगा कर मिटांने की जरुरत नहीं होती थी पुरे कमरे मे पानी टपकते रहता था उसी से काम चला लेते थे।
कभी कभी दोपहर की छुट्टी के लिए एक छोटी सी थैली मे बाजरे का रोटा और गुड़ लेकर निकलते थे मगर प्रार्थना से पहले ही खाकर पूरा कर देते थे । और दोपहर मे गाँव मे किसी के भी वहाँ जाकर बिना पुछे खाना खा लेते थे । आजकल पानी भी पूछकर पीना पड़ता है
जिस दिन लगता था आज रेसीस में भागना है तो पाटी को कमीज के अंदर छुपाकर स्कूल की दीवार कूदकर भाग जाते थे मगर पहुँचते 5 बजे तक क्योंकि पहले पहुँचते तो आपको तो सब पता ही हैं धुलाई होती थी।
स्कूल में बैठने के लिए कमरे नहीं थे टेबल या पक्का फर्स नही होता था। इसलिए बाहर खुले में पेड़ के नीचे ही बैठते थे, रस्ते से कोई गाड़ी गुजरती तो गेट के पास जाकर देखते थे। और जब आसमान में कोई हवाईजहाज आवाज़ सुनाई देती तो शोर मचा देते थे वो जा रही, वो जा रही हैं भले खुद को दिखी भी ना हो । आते जाते रास्ते मे तेज चलते हुये ट्रेकर टोली के पीछे चढना भी हमारा एक टेलन्ट हुआ करता था
मारसाहब जब हाजरी लेते थे तो दूसरे बच्चे बोलते तेरा नम्बर हैं फिर हम जोर से ऊछल कर बोलते थे येसररररर ।
महिने मे 10 दिन आधा लिटर का लोटा दुध से भरकर स्कूल लेकर जाते थे ताकि मारसाहब नम्बर भी ज्यादा दे और डन्डे भी कम मारे।
स्कुल मे खिचड़ी बनती थी तो पाटी के उपर पेपर रखकर उसमे लेकर बड़े चाव से खाते थे। प्लेटे नही होती थी और ना ही चमच्च थे रास्ते मे बाड़ से 6 इंस का टुकड़ा जेब मे लेकर ही जाते थे ।स्कुल की छुट्टी के लिये लिये पेड़ की छाया से ही हम पता लगा लेते थे कि आधा घन्टे बाद छुट्टी होने वाली है।पहले ही पाटी को थैली के अन्दर डाल देते थे
महिने मे 10 दिन आधा लिटर का लोटा दुध से भरकर स्कूल लेकर जाते थे ताकि मारसाहब नम्बर भी ज्यादा दे और डन्डे भी कम मारे।
स्कुल मे खिचड़ी बनती थी तो पाटी के उपर पेपर रखकर उसमे लेकर बड़े चाव से खाते थे। प्लेटे नही होती थी और ना ही चमच्च थे रास्ते मे बाड़ से 6 इंस का टुकड़ा जेब मे लेकर ही जाते थे ।स्कुल की छुट्टी के लिये लिये पेड़ की छाया से ही हम पता लगा लेते थे कि आधा घन्टे बाद छुट्टी होने वाली है।पहले ही पाटी को थैली के अन्दर डाल देते थे
पाँचवीं तक स्कूल में सिर्फ एक ही माड्साहब थे अगर उनकों कहीं डाक के काम से जाना था तो उस दिन स्कूल में छुट्टी हो जाती थी इसलिए हम हमेशा भगवान से प्रार्थना करते थे ।रामजी जी आज मारसा रे डाक रो काम हो जाईजो।
खेलने के लिए किसी विशेश किट की आवश्यकता नहीं थी इसलिए मन हुआ जब तो लाइनें खींचकर कबड्डी का मैदान बनाकर खेल लेते। रद्दी कपड़े की बॉल बनाकर भी खेल देते थे।
समय देकर पढने के लिए धन्यवाद। इसमें आपका भी बचपन छुपा हैं।
आजकल स्कूलों में पढाई नहीं पकाई हो रही हैं। छात्रों के दिमाग भी जबरदस्ती से ठूसा जा रहा हैं।
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