शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

परिवर्तन आज और पहले

यूँ देखा जाये तो परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। समय के साथ हर चीज़ में परिवर्तन आ जाता है । फिर चाहे वह कोई इंसान हो या अनुशासन बदलाव तो आखिर बदलाव ही है। अपने जमाने की बात सोचो तो लगता है, हम तो बहुत कठोर अनुशासन में पले बढ़े लोग हैं। फिर चाहे वह स्कूल का मामला हो या घर का कोई भी ऐसा कदम जो सार्वजनिक रूप से अनुचित माना जाता है, उसे उठाने से पहले हम सो बार सोचते होंगे कि हम जो करने जा रहे हैं वह कितना सही है और कितना गलत। उसके बाद यदि पकड़े गए तो अंजाम क्या होगा। किन्तु आज की पीढ़ी को देखते हुए लगता है कि वह हमारी तुलना में काफी निडर है। उन्हें जैसे अंजाम का कोई डर ही नहीं होता कि यदि पकड़े गए तो क्या होगा। 

यूँ देखा जाए तो अब स्कूलों में भी अनुशासन उतना सख्त नहीं रहा, जितना अपने समय हुआ करता था नहीं ? यहाँ तक कि मैंने एक सरल छात्र  होने के पश्चयात अपने अध्यापकों से चपत से लेकर डस्टर, स्केल, आदि सभी चीजों से मार खाई है लड़कों कि तो बात ही क्या और एक आज का ज़माना है आज के बच्चे अपने अध्यापकों से ज़रा नहीं डरते। आज के ज़माने में कोई एक आद अध्यापक या अध्यापिका जी ही ऐसे होते होंगे जिनसे बच्चे डरते हों। एक हमारा ज़माना था, हमें तो एक आद को छोड़कर सभी से बहुत डर लगा करता था। 

लेकिन जब बात बच्चों की परवरिश की हो तो, अनुशासन की परिभाषा अनुभवों के आधार पर गडमड हो ही जाती है और हम असमंजस में उलझ कर रह जाते हैं कि अनुशासन में रखकर जो हमारे माता पिता ने हमारे साथ किया वह सही था या आज हम जो अपने बच्चों के साथ कर रहे हैं वह सही है। क्योंकि जब हम एक अभिभावक बनकर सोचते हैं तो तुलना अपने बचपन से ही करते हैं। लेकिन निर्णय आज के समय अनुसार लेना पड़ता है। फिर साथ ही साथ रह रहकर मन में यह विचार भी आता है कि क्या हमारी गलतियों पर हमारे माता-पिता भी इतनी ही जल्दी उत्तेजित हो जाया करते थे, जितना आज के समय में हम हो जाते हैं। या यह सोचकर कि बच्चे हैं बच्चे तो गलती करेंगे ही, नहीं तो सीखेंगे कैसे ऐसा सोचकर कई गलतियों पर ध्यान भी नहीं देते थे। नहीं ? दूसरी और एक हम हैं जो बच्चों की ज़रा-ज़रा सी गलतियों पर इतने चिंतित हो जाते हैं कि लगता है हर विषय पर उनसे बात करो बात -बात पर उन्हें सही गलत समझाओ।

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