मंगलवार, 23 जून 2015

" बेटी की विदाई " .

" बेटी की विदाई " . . . . . . . कन्यादान हुआ जब पूरा,आया समय विदाई का । हँसी ख़ुशी सब काम हुआ था,सारी रस्म अदाई का । बेटी के उस कातर स्वर ने,बाबुल को झकझोर दिया । पूछ रही थी पापा तुमने,क्या सचमुच में छोड़ दिया । अपने आँगन की फुलवारी,मुझको सदा कहा तुमने । मेरे रोने को पल भर भी ,बिल्कुल नहीं सहा तुमने । क्या इस आँगन के कोने में, मेरा कुछ स्थान नहीं । अब मेरे रोने का पापा,तुमको बिल्कुल ध्यान नहीं । देखो अन्तिम बार देहरी,लोग मुझे पुजवाते हैं । आकर के पापा क्यों इनको,आप नहीं धमकाते हैं । नहीं रोकते चाचा ताऊ,भैया से भी आस नहीं । ऐसी भी क्या निष्ठुरता है,कोई आता पास नहीं । बेटी की बातों को सुन के ,पिता नहीं रह सका खड़ा । उमड़ पड़े आँखों से आँसू,बदहवास सा दौड़ पड़ा । कातर बछिया सी वह बेटी,लिपट पिता से रोती थी । जैसे यादों के अक्षर वह,अश्रु बिंदु से धोती थी । माँ को लगा गोद से कोई,मानो सब कुछ छीन चला । फूल सभी घर की फुलवारी से कोई ज्यों बीन चला । छोटा भाई भी कोने में,बैठा बैठा सुबक रहा । उसको कौन करेगा चुप अब,वह कोने में दुबक रहा । बेटी के जाने पर घर ने,जाने क्या क्या खोया है । कभी न रोने वाला बापू,फूट फूट कर रोया है ।

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