रविवार, 14 जून 2015
"वक़्त" पर एक प्यारी सी कविता,
"हर ख़ुशी है लोगों के दामन में पर हँसने के लिये वक़्त नहीं...
दिन रात दौड़ती दुनिया में अपनी ज़िन्दगी के लिये ही वक़्त नहीं...
सारे रिश्तों को तो हम मार चुके उन्हें दफ़नाने का भी वक़्त नहीं..
हैं सारे नाम मोबाइल में पर बात करने के लिये वक़्त नहीं...
गैरों की क्या बात करें जब अपनों के लिये ही वक़्त नहीं...
आँखों में है नींद भरी पर चैन से सोने का ही वक़्त नहीं,
दिल है ग़मो से भरा हुआ पर रोने का भी वक़्त नहीं...
पैसों की दौड़ में ऐसे दौड़े की थकने का भी वक़्त नहीं,
पराये एहसानों की क्या कद्र जब अपने सपनों के लिये वक़्त नहीं...
तू ही बता ऐ ज़िन्दगी इस व्यस्त ज़िन्दगी का क्या होगा,
यहा हर पल मरने वालों को जीने के लिये भी वक़्त नहीं..."
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