।। राम राम सा ।।
मित्रो अगर किसी को किसी भी प्रकार की जानकारी लेनी हो तो दिन मे एक घन्टे जा समय निकाल कर किसी बुजुर्गो के साथ समय बिताना चाहिये । आज हमे भी एक बात की चुभन हो रही है कि दादाजी जो कहते थे उसमे थोड़ा बहुत ही ध्यान देते थे पुरा ध्यान दें देते तो कितना अच्छा होता था।
एक समय था जब लोगों को समझ और रिश्तों की कद्र थी.एक लिहाज था.लोग अपने परिवार से ज्यादा अपने आस-पास से घबराते थे(यह घबराना यानी डर नहीं बल्कि कहें तो लिहाज या सम्मान सूचक था)
और,ऐसे में हर परिवार खुद् को सुरक्षित महसूस करता था कि पडोस वाले ने भी अगर कुछ गलत देख लिया तो तत्काल उसे जो करना है वह तो कर ही जायेगा और यथासम्भव परिवार को भी सूचित कर देगा.आज परिस्थितियां ऐसी बदली हैं. इस बदलते परिवेश में हर किसी को अपने जानो-माल का खौफ सताता है.फलस्वरूप अपनो की भी बातें कोई देखकर भी कभी बोलता नहीं.फलस्वरूप अब गलती करने वाले बेख़ौफ़ हो चुके हैं.उनमें वर्तमान को जीने की ऐसी उन्माद है कि भविष्य में क्या होगा उसकी सोच ही नहीं रखते.
आज बिखरते परिवार और बिखरते समाज के लिये कहीं ना कहीं जिम्मेदार हम भी हैं.हममें सुनने और सहिष्णुता का गुण जो खत्म हो गया है…बस भीड़ का हिस्सा बनने का पागलपन सर पर चढ़ा हुआ है.समाज निर्माण की आड़ में मुख्य इकाई को ही भूलते जा रहे हैं हम….बिखर रहे हैं परिवार और बिखर रहा समाज
…हर कोई एकाकी जीवन जीने को मजबूर है, हर कोई की सोच यही है कि उसे कोई समझता नहीं…
भीड़ और बदलाव की दुनिया ऐसी मनमोहिनी कि यदि इसमें उलझे तो उलझते ही चले गए.फलस्वरूप फायदा किसे और नुकसान किसे?
फायदा बाज़ार को, वो इसलिये कि इंसान स्वभाव से तो सामाजिक है पर रिश्तों की अहमियत कमजोर होने के कारण यह समाज की कमजोर कड़ी बन गई है और बाज़ार हमेशा ही अपने उत्पाद को बेचने हेतु समाज की इन्हीं कमजोर कड़ियों की तलाश में रहता है.अपने मनलुभावन प्रचार के माध्यम से लोगों के मनोविज्ञान को अपना शिकार बना लेता है.मनुष्य भी कब तक अपने पिंजड़े में कैद रहे,पर इसे अब समाज की आवश्यकता नहीं,इसे अपने मन बहलाने के लिये बाज़ार जो मिल गया गया है.साथ ही पैसों की अकड़ ऐसी की आपस में ही यह संवाद करना कि “मुझे किसी की जरूरत नहीं” ऐसी सोच से खुद् में खुद् को संतुष्ट रखना…ना जानें हमें किस ओर ले जाएगा
आज किसी को किसी की आवश्यकता नही रही सब पैसो के बल पर हो रहा है ।
एक समय था जब हमारे गावों मे छोटे से लेकर बड़े प्रोग्राम को गाँव वाले आपस मे मिलकर कर देते थे । जो आज लाखो रुपया खर्च करने के बाद भी व्यवस्था करने में असफल रहते है ।आज पकवान व खाना बनाने से बरतन धुलवाने तक का काम भी केटर्स वाले करते है । आपसी संबंधों मे दुरिया होती जा रही है । फिर भी किसी को पुछो तो फुरसत नहीं है ।
पहले के ज़माने में लोग अपने आस-पास के चार पांच गांवो के बच्चो से बुजुर्गो तक सभी को जानते थे किसका रिस्ता कहाँ पर है याद रखते थे । और आजकल भले किर्केटरो फिल्म हिरो हिरोइनो डब्लयू डब्लयू स्टारों के बाप दादाओ को जानते है व किसके साथ किसकी अफेयर रही है ये सब बाते तो जानते है लेकिन अपनी भुआ व मौसी के कितने बेटे बेटियाँ है वो कहाँ रहती है वो नही जानते है ।
गुमनाराम पटेल सिणली
मित्रो अगर किसी को किसी भी प्रकार की जानकारी लेनी हो तो दिन मे एक घन्टे जा समय निकाल कर किसी बुजुर्गो के साथ समय बिताना चाहिये । आज हमे भी एक बात की चुभन हो रही है कि दादाजी जो कहते थे उसमे थोड़ा बहुत ही ध्यान देते थे पुरा ध्यान दें देते तो कितना अच्छा होता था।
एक समय था जब लोगों को समझ और रिश्तों की कद्र थी.एक लिहाज था.लोग अपने परिवार से ज्यादा अपने आस-पास से घबराते थे(यह घबराना यानी डर नहीं बल्कि कहें तो लिहाज या सम्मान सूचक था)
और,ऐसे में हर परिवार खुद् को सुरक्षित महसूस करता था कि पडोस वाले ने भी अगर कुछ गलत देख लिया तो तत्काल उसे जो करना है वह तो कर ही जायेगा और यथासम्भव परिवार को भी सूचित कर देगा.आज परिस्थितियां ऐसी बदली हैं. इस बदलते परिवेश में हर किसी को अपने जानो-माल का खौफ सताता है.फलस्वरूप अपनो की भी बातें कोई देखकर भी कभी बोलता नहीं.फलस्वरूप अब गलती करने वाले बेख़ौफ़ हो चुके हैं.उनमें वर्तमान को जीने की ऐसी उन्माद है कि भविष्य में क्या होगा उसकी सोच ही नहीं रखते.
आज बिखरते परिवार और बिखरते समाज के लिये कहीं ना कहीं जिम्मेदार हम भी हैं.हममें सुनने और सहिष्णुता का गुण जो खत्म हो गया है…बस भीड़ का हिस्सा बनने का पागलपन सर पर चढ़ा हुआ है.समाज निर्माण की आड़ में मुख्य इकाई को ही भूलते जा रहे हैं हम….बिखर रहे हैं परिवार और बिखर रहा समाज
…हर कोई एकाकी जीवन जीने को मजबूर है, हर कोई की सोच यही है कि उसे कोई समझता नहीं…
भीड़ और बदलाव की दुनिया ऐसी मनमोहिनी कि यदि इसमें उलझे तो उलझते ही चले गए.फलस्वरूप फायदा किसे और नुकसान किसे?
फायदा बाज़ार को, वो इसलिये कि इंसान स्वभाव से तो सामाजिक है पर रिश्तों की अहमियत कमजोर होने के कारण यह समाज की कमजोर कड़ी बन गई है और बाज़ार हमेशा ही अपने उत्पाद को बेचने हेतु समाज की इन्हीं कमजोर कड़ियों की तलाश में रहता है.अपने मनलुभावन प्रचार के माध्यम से लोगों के मनोविज्ञान को अपना शिकार बना लेता है.मनुष्य भी कब तक अपने पिंजड़े में कैद रहे,पर इसे अब समाज की आवश्यकता नहीं,इसे अपने मन बहलाने के लिये बाज़ार जो मिल गया गया है.साथ ही पैसों की अकड़ ऐसी की आपस में ही यह संवाद करना कि “मुझे किसी की जरूरत नहीं” ऐसी सोच से खुद् में खुद् को संतुष्ट रखना…ना जानें हमें किस ओर ले जाएगा
आज किसी को किसी की आवश्यकता नही रही सब पैसो के बल पर हो रहा है ।
एक समय था जब हमारे गावों मे छोटे से लेकर बड़े प्रोग्राम को गाँव वाले आपस मे मिलकर कर देते थे । जो आज लाखो रुपया खर्च करने के बाद भी व्यवस्था करने में असफल रहते है ।आज पकवान व खाना बनाने से बरतन धुलवाने तक का काम भी केटर्स वाले करते है । आपसी संबंधों मे दुरिया होती जा रही है । फिर भी किसी को पुछो तो फुरसत नहीं है ।
पहले के ज़माने में लोग अपने आस-पास के चार पांच गांवो के बच्चो से बुजुर्गो तक सभी को जानते थे किसका रिस्ता कहाँ पर है याद रखते थे । और आजकल भले किर्केटरो फिल्म हिरो हिरोइनो डब्लयू डब्लयू स्टारों के बाप दादाओ को जानते है व किसके साथ किसकी अफेयर रही है ये सब बाते तो जानते है लेकिन अपनी भुआ व मौसी के कितने बेटे बेटियाँ है वो कहाँ रहती है वो नही जानते है ।
गुमनाराम पटेल सिणली
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