शुक्रवार, 8 मार्च 2019

वो भी क्या समय था


                     राम राम सा
मित्रो कभी कभी वे भी क्या दिन थे और  आज भी क्या दिन है दुनिया  मे गाँव से लेकर बड़े शहरों मे समय किसी के पास नही है ।पहले जब घडी एकाध के पास होती थी और समय सबके पास थाआज घड़ी सबके पास है समय नही।
आज की तरह नही था कि व्हाटसअप  ट्विटर  ब्लोगर फेसबुक पर  5000 मित्र हैं और परिवार में बोलचाल ही नही है।
तब मोबाइल तो क्या लैंडलाइन भी नही होता था,
अतः झूठ सिर्फ आमने सामने मिलने पर ही बोला जाता था।
खानपान शुद्ध था और याददाश्त अच्छी थी
हर व्यक्ति को सात सात पीढियां याद रहती थी
अपनी भी और गाली गालोच होने पर दूसरे की भी।।
हमारी प्राथमिक शिक्षा तो ऐसी थी जिसमे शिक्षा प्राथमिक नही थी
हमारे गाँव मे 60 बच्चों अध्यापको दो तीन  कच्चे  कमरे का स्कूल हुआ करता था।
शहरो मे आज तो इतनी जगह  पर लोग यूनिवर्सिटी चला रहे है।
पढाई लिखाई को लेकर कतई तनाव नही रहता था
क्योंकि हम विद्यार्थियो और अध्यापको के बीच एक समझौता था
की सप्ताह में तीन दिन वे स्कूल नही आएंगे और तीन दिन हम।
बोलचाल में मातृभाषा का इस्तेमाल होता था
हिंदी सिर्फ शहरों तक ही सीमित थी,
और अंग्रेजी तो केवल पीने के बाद ही बोली जाती थी।
पहले कबड्डी खोखो कुस्ती आदि खेल हुआ करते थे आज के
बच्चे भी क्या करें खोखो कबड्डी कुश्ती तो संसद विधान सभाओ में चले गए है ।
बाक़ी खेलो को आज मोबाईलो गेमो  ने बाहर कर रखा है।

हालांकि क्रिकेट तब भी खेल जाता था,
बैट का मालिक बैटिंग करता था और बाल का मालिक बोलिंग
फील्डर भी यही दो होते थे,
बैट टच न होने पर फेंकी हुई गेंद फेकने वाले को  ही लानी पड़ती थी
एक ओवर कुल कितनी गेंदों का होगा यह गेंद का मालिक तय करता था
लोग भूखे उठते थे पर भूखे सोते नही थे
मंहगाई बिलकुल नही थी ईमान के अलावा सब कुछ सस्ता था
सस्ताई का अंदाज़ा आप इसी से लगा लें की फिल्मो में
हेरोइनो को पैसा कम मिलता था फिर भी कपडे पूरे पहनती थीं।
और आज पैसा ज्यादा और कपड़े कम कर दिये है
उन दिनों रामलीलाएं मनोरंजन का प्रमुख साधन हुआ करती थी
जिनमे महिला पत्रो का रोल भी पुरुष ही करते थे
रामलीला वालो का गले मिलने व गले पड़ने का समय अगल अलग होता था
रामलीला मण्डली गांव के मन्दिर में ठहरती थी

हम गाँव के बच्चे मन्दिर में जाकर देखते थे की पिछ्ली रात ही एक दूसरे के जानी दुश्मन रहे
बाली और सुग्रीव एक दूसरे के साथ ताशपत्ति खेल रहे हैं
शुर्पड़खा मंथरा के लिए चाय बना रहा है।
चटाई पर बैठा रावण रात को आये पैसो का हिसाब
मंदोदरी को दे रहा है।
तब लोग पैदल चलते थे व पदयात्राएं किया करते थे।
जो की पद प्राप्त करने के लिए नही होती थी
कुछेक के पास साइकिल हुआ करती थी
जो दो बाजरे की रोटी  में चालीस का एवरेज दिया करती थी
कारें मोटरसाइकिलें छोडो बसें तक गिनती की हुआ करती थी।
जहाज और हवाईजहाज तो हम किताबो में देखते थे और कापियों के बनाया करते थे।जैसे संसद मे पप्पू ने बनाए
रेलगाड़ियों मे सफर के वक्त उनकी स्पीड का तो यह हाल था की घंटे आधे घंटे का सफ़र होता था फिर भी लोग
तीन वक़्त का खाना बांधकर चलते थे।
ट्रेन में चढ़ने में जितना पसीना आता था उतरने में उससे अधिक आता था
यात्री लकडी की सीटों पर काठ के उल्लू बने बैठे रहते थे
डिब्बों में ठपलि वालो का गाना बजाना चलता रहता था
खड़े यात्री भजन पसंद करते थे और जिन्हें सीट मिल जाती थे वे ग़ज़ल
लोग फरमाइशें करते थे और ठपलि वाले गाते रहते थे
ठपलि वालो को पैसे देने का वक़्त आता था तब लोग खुद गाने लगते थे
चिट्ठी पत्री का दौर था एसएमएस और ईमेल वाले क्या जाने क्या जाने पत्रलेखन का स्वाद
पत्रो में व्याकरण अशुद्ध होते हुए भी आचरण शुद्ध होता था
शादी से याद आया तब शादियों में व्यर्थ का दिखावा या धूम धड़ाका नही होता था
बस दो तीन दिन तक बारात रुकती थी ढौल थाली पर डांस कर लेते थे
नाचने के लिए रुमाल ही केवल दो चार के पास हुआ  करता था।।
वह टीवी नही रेडियो का युग था
व्यक्ति बंदूक भले ही बिना लाइसेंस के रख सकता था
किन्तु रेडियो के लिए लाइसेंस अनिवार्य था
सच है गन्ने का रस सूख जाए तो वह लाठी रह जाती है
तब हमारा जीवन कछुए की तरह था
आज हम खरगोश की तरह दौड़ रहे हैं
अर्थात भाग सब रहे है पर पहुँच कोई नही रहा।

                                                                                 

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