सोमवार, 18 मार्च 2019

खरगोश और कछुआ की दोड़

राम राम सा

सुण जीवण संग्राम री, एक बात निरधार।
चाळै जां की जीत है, सोवै जां की हार।।

‘‘जीवन रूपी संग्राम की यही बात सत्य है कि जो निरंतर चलते रहते हैं,उनकी तो जीत होती है और जो सोते रहते हैं, रुक जाते है उनकी हार होती है। अत: आलस्य छोडक़र निरंतर चलते रहना, आगे बढ़ते रहना चाहिए।’’

खरगोश और कछुए की कहानी आपने जरूर सुनी होगी । मगर सही शिक्षा और पूरी कहानी ये है -

एक बार एक खरगोश कछुए की धीमी चाल देखकर बोला कि इस चालसे तो अच्छा है पत्थर होना। कहीं चिनवाई में तो काम आता। मेरी ऐसी चाल होती तो मैं आत्महत्या करके मर जाता। तुझे अपनी चाल पर थोड़ी बहुत भी शर्म नहीं आती। मैं दौड़ता हूँ तब हवा को भी पीछे रखता हूं..। कछुए ने नम्रता से कहा कि तुम तो बहुत ही हवा को पीछे रखते हो, लेकिन तुम्हारी चाल मेरे क्या काम आए। यह तो कुदरत की दी हुई है। इस पर ज्यादा घमंड नहीं करना चाहिए। अपनी चाल पर तुम्हें इतना ही घमंड है तो कभी यह भी देख लेंगे।तुम्हारा जब मन हो, हार जीत लगा लेना।  देखते हैं कौन आगे जाता है।खरगोश को कछुए की यह बात चुभी। उसने कहा कि फिर कभी क्यों, आज ही परख कर लेते हैं। जब हार जीत की शर्त करनी है तो फिर देर किस बात की। यदि मैं हार गया तो जिऊंगा तब तक तुम्हारा सेवक रहूंगा और तू हार गया तो सिरफ बारह महीने मेरा सेवक रहना।  खरगोश को तो अपनी चाल पर गर्व था। कछुए को उसकी बात माननी पड़ी। लगभग तीन कोस की दौड़ तय हुई। तीन कोस पर चार खेजड़ों के चक्कर लगा कर वापस उसी जगहआना। खरगोश तो दौड़  पड़ा। कछुआ तो लाइन से चार हाथ ही आगे सरका और खरगोश ने आधा रास्ता तय कर लिया। वह तो कान ऊंचे करके हवा की तरह उड़ा। आधा रास्ता तय करने के बाद खरगोश ने मुडकर देखा तो कछुए की परछाई तक दिखाई नहीं थी। खरगोश सोचने लगा कि बेचारे कछुएको या पता था कि तीन कोस की दूरी देकर भी मैं उसे फट पकड़ सकता हूं। कछुआ तो न जाने कब तक यहां पहुंचेगा? अत: खरगोश कभी बैठ जाता,कभी चरने लगता। मन करता तब रवाना हो जाता। मन करता जब कछुए को देखने वापस चल पड़ता। लेकिन कछुआ तो अपनी धीमी चाल से धीरे धीरे रात दिन लगातार चलता रहा। खरगोश ठेठ मंजिल के पास पहुंचने वाला था।उसने देखा कि हां पहंचुने में अभी दो पखवाड़े लगेंगे। बेचारे की अले मारी हुई थी, जो मेरे से हार जीत की शर्त लगाई। यह कछुआ तो मुझे बिना पैसे का नामी चाकर मिला। जानता बूझता मेरे से शर्त लगाई। इस कछुए से तो मैं खूब काम लूंगा।
खरगोश सोच रहा था कि दौड़ में मेरी जीत तो निश्चित है।कछुआ मेरा सेवक बनेगा। मुझे उससे महत्पवपूर्ण काम कराने चाहिए। इस जंगल में पानी की कमी है। पानी की तलाश में जाता हूं तो शिकारी मार डालते है। इस कछुए से तो मैं पीने के पानी का पूरा-पूरा इंतजाम  कराऊंगा। इस प्रकार की बातें सोचता हुआ वह एक वृक्ष की छाया में सो गया। सोते-सोते जीतने के सपने देखता रहा। सपने में उसने कछुए से पानी की परखालें ढोवाय-ढोवाय कर अपने लिए मीठे जल की एक जबरदस्त झील भरवा ली। और इधर कछुआ धीरे-धीरे अपनी धीमी चाल से रात-दिन चलता हुआ आगे बढता रहा। आखिरकार निरंतरता बड़ी होती है। वह चार खेजड़ों तक पहुंच गया और उनके चक्कर लगातार वापस उसीस्थान पर आ गया, जहां से दौड़ शुरू हुई थी। उधर खरगोश तो सपने में ठंडे पानी की झील के किनारे ठंडे झकोरों में ऊघ रहा था कि उसने देखा कि एक बड़ी गोह उसको पकडऩे के लिए मुंह फाड़े ठेठ उसके पास आ गई है। अचानक झिझककर उसने आंख खोली। कहां झील और कहां पानी के ठंडे झौंके। सुखी जमीन खाऊं-खाऊं कर रही थी। वह हड़बड़ा कर चार खेजड़ों की ओर दौड़ा। वहां  देखता है कि कछुए के पदचिह्न बने हुए हैं। वह तो खेजड़ों के चक्कर लगाकर लौट चुका था। यह देख खरगोश के तो होश उड़ गए तो भी उसने मन में उत्साह था।अपनी शक्ति से अधिक तेज दौड़ा छोटे पौधे लांघता हुआ लंबी छलांगें लगाता हुआवह इस तरह दौड़ा जैसे बंदूक की गोली जा रही हो। उड़ता-सा वह जब नियतस्थान पर लौटकर पहुंचा तो उसने देखा कि कछुआ तो आगे उसी का इंतजार कर रहा था। कछुए ने खरगोश से नमस्कार किया। खरगोश फीकी हंसी हंसता हुआ बोला कि नींद नहीं लेता तो मैं एक पलक में आ जाता। अब शर्त के मुताबिक मैं तुम्हारा सेवक हूं। सारी उम्र के लिए। कछुआ भला और सीधा बहुत ही था। वह बोला कि मैं किसको सेवक रखूं। मेरी या सामथ्र्य कि मैं किसी को सेवक रखूं।लेकिन इतना घमंड नहीं करना चाहिए। भगवान नाक की डंडी पर बैठा है। कुदरत किसी को नही बगशती है, किसी को भी नही। उस पर  घमंड करना। मुझे तो सिर्फ यह बात की बतानी थी। तुम आइंदा किसी कछुए पर मत हंसना। खरगोश चुपचाप उसकी बात सुनकर गर्दन नीची किये वहां से चल पड़ा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें