बुधवार, 3 अगस्त 2016

ताड़का का हसबैंड

सभी पतियों की तरफ से कुछ "अर्ज़" हैं,जिसे जहाँ अपने लिए अच्छा लगे वो वहां फिट कर ले :- जब भी कुछ खाने लगता हूँ मुझे वो रोक देती है I लगा कर तो कभी तड़का तवे पर झोंक देती है I जिस्म का दर्द ये कैसे कहूँ के तुम ही बतलाओ, कभी बेलन, कभी करछी, मुझे वो ठोक देती है II मैं कुछ कह नहीं सकता के वो ही भोंक देती है I कभी कुछ कह भी दूँ तो बीच ही में टोक देती है I के दो कौड़ी की है औकात अब अपनी यहाँ यारों, कभी मैं मांग लूं लस्सी, मुझे वो कोक देती है II के घर के बाहर जाकर खुद को मैं आज़ाद करता हूँ I के मैं तो रो ही देता हूँ उसे जब याद करता हूँ I जन्म हो सांतवा मेरा इस शादी के बंधन का, बंधू न अब कभी उस संग यही फ़रियाद करता हूँ II डिनर में नखरा कर दूँ तो मेरी शामत आ जाती है I वही सब्जी, वही दालें, वही बैगन खिलाती है I नज़र वो मुझ पर रखती है हमेशा संग-संग रहकर, छाती पर मूंग दलती है, कभी ना मायके जाती है II उसे सब गोलगट्टम-लक्कड़-फट्टम- क्रिकेट बुलाते हैं I मुझे सब सैट कहते हैं उसे सब हैण्ड बुलाते हैं I कहूँ कैसे कि खुश हूँ मैं सभी की बात सुनकर जी, मुझे सब ताड़का का दोस्तों, हसबैंड बुलाते हैं II

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