शनिवार, 14 मार्च 2020

मुसाफिर की आस


एक मुसाफिर 'हिन्दु बा '
उम्र के बीस पड़ाव में,
अच्छे दिनों की आस में।
डूबते सूरज की आंच में,
सियाले की ठंडी रात में
चलता है एक मुसाफिर,
तू थार के रेगिस्तान में।।
अकाल के इस हालात में,
रोटी पानी की चाहत में।
भेड़ों को लेकर साथ में,
चल पड़ा रेतीली राह में।
चलता है एक मुसाफिर,
तू थार के रेगिस्तान में।।
चूल्हा बोरी में डाल के,
बिस्तर गधों पर लाद के।
अपनो को छोड़ गाँव में,
लेकर लाठी हाथ में।
चलता है एक मुसाफिर,
तू थार के रेगिस्तान में।।
बीड़ी झोली में डाल के,
सिर पर साफा डाल के।
मोबाइल इंटरनेट के काल में,
आधुनिकता की तलाश में।
चलता है एक मुसाफिर,
तू थार के रेगिस्तान में।।
धोती कुर्ता पहन के,
हिम्मत बूढे जिगर में डाल के।
मूंछों को देकर ताव में,
जिये अनुभवों की आड़ में।
चलता है एक मुसाफिर,
तू थार के रेगिस्तान में।।
निपटा के काम शाम के,
ढलके आंसू मांझल रात के।
उबी मरवण आंगण में,
जोवे बांटा फागण में।
चलता है एक मुसाफिर,
तू थार के रेगिस्तान में।।
गांव 'रेवड़' जालोर के,
भाकर धोरे फांद के।
'भाखल' बिछाया रेत में,
जोधाणे के खेत में।
चलता है एक मुसाफिर,
तू थार के रेगिस्तान में।।
राही 'श्रवण' आया भाग के,
जानने हाल गाल के।
लिखे कविवर किताब में
मरूधरा की शान में।
चलता है एक मुसाफिर,
तू थार के रेगिस्तान में।।

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