शनिवार, 21 मार्च 2020

हमारा स्कुल का बचपन

।। राम राम सा ।।

मित्रो हमारे समय पढाई आजकल की तरह इंगलिश मीडियम नही थी जिसमे नर्सरी से ही किताबो का बोझ डाला जाये एक सप्ताह मे तीन तीन युनिफोर्म बदलना पड़े घर तक स्कुल बस लेने के लिये आये ।कपड़े रोजाना प्रैस किये हुए हो।  ये सब हमारे पढाई के समय नही था ।
हम पहली दुसरी तक घर से सिर्फ स्लेट लेकर स्कूल गए थे. अगर कोई कपड़े की थैली मिल जाती तो ठीक नही तो स्लेट हाथ मे लेकर ही चल देते थे । चुपके से स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी लेकिन इसमें पाप लगने  का डर भी था कि कहीं विद्यामाता नाराज न हो जायें । पहले मिट्टी की  बनी स्लेटे आती थी लेकिन मेरे द्वारा दौ तीन स्लेट तोड़ने के बाद मुझे कार्डबोर्ड वाली स्लेट ही मिली थी घर से स्कुल जाते समय कभी कभी स्लेट को पतंग की तरह उपर भी फेंक देते थे । तीसरी कक्षा मे आते ही किताबों के लिये कपड़े की थैली लाई गई थी ।वो भी हाइब्रिड बाजरा की खाली थैली जो पहले बहुत ही अच्छी आती थी एक ही यूनिफॉर्म मे पुरे वर्ष काम चला देते थे वर्षो तक पढाई करने के बावजूद कभी कपड़े प्रेस नही करते कपड़ो पर सिलवटे पडने पर इगौ खराब होने का कोई अफ़सोस नही था । पढाई के लिये कोई भी किसी प्रकार का तनाव नही था । थोड़े बहुत तनाव को हम पेन्सिल का पिछला हिस्सा चबाकर मिटा देते थे।
पाँचवी तक कच्ची स्कुल थी कमरो के खुले आंगन मे या बाहर  मिट्टी पर भी बैठ जाते थे।
स्कूल में टाट पट्टीया तो थी पर सब छात्रो के लिये प्रयाप्त संख्या मे नही थी इसलिये हम घर से बोरी का टुकड़ा बगल में दबा कर ले जाते थे 
किताबों के बीच विद्या (अभ्रक)के टुकड़े ,तुलसी  के पौधे की पत्ती और मोरपंख रखने से हम होशियार हो जाएंगे ऐसा हमारा अच्छा खासा  विश्वास था । 
गुरुजी हमारे भविश्य की बहुत चिन्ता करते थे ध्यान लगाकर पढ़ाई किया करो नही तो बाद मे
पछताओगे।  वो चिन्ता आज हम अपने बच्चो के लिये नही कर रहे है । 
कक्षा छः मे आते ही हमने पहली दफा  अंग्रेजी का ऐल्फाबेट की पढ़ाई शुरु की इससे पहले पांचवी कक्षा मे गुरुजी ने हमे एबीसीडी के बारे मे पहले से ही बता दिया था । कि डरे  नही ये हिन्दी से भी सरल है तब जाकर हमे आत्मविश्वास हुआ ।
यह बात अलग है बढ़िया स्मॉल लेटर  से सरल वाक्य बनाना हम छठी कक्षा के अन्त थौड़ा बहुत सीख गये ।जो आजकल के बच्चे नर्सरी मे अर्धवार्षिक तक सिख जाते है ।
कपड़े की थैली में किताबे और कॉपियां जमाने का तरीका हमारा  कौशलकार्य था ।
प्रति वर्ष जब नई कक्षा की किताबे कॉपीया लाते थे  तब कॉपीया व किताबों पर पुठ्ठा चढ़ाना हमारे लिये कोई एक दिन के उत्सव जैसा होता   था । पुठ्ठे भी रद्दी के अकबार के ही लाते थे।
जैसे आजकल के माता पिता को फिक्र होती है वैसे हमारे माता पिता को हमारी पढ़ाई की कोई फ़िक्र नहीं थी , ना ही हमारी पढ़ाई आजकल की तरह उनकी जेब पर कोई बोझ थी। दस साल पढ़ाई करते हुये  बीत जाने पर माता पिता को हमारे स्कूल में आने की जरूरत नही पड़ती थी क्योकि सारी जिम्मेदारी गुरुजी की थी । स्कुल मे गुरुजी द्वारा दण्ड की शिकायत घर तक नही आती थी क्योकि घर पर और भी कठोर दण्ड मिलने की पूरी सम्भावना होती थी ।पाँच वी के बाद कक्षा छः मे गाँव से चार किलोमिटर दूर धवा स्कुल जाना पड़ता था तो कभी कभी      
मेरे दोस्त मुझे साईकिल के डंडे पर तो कभी पीछे कैरियर पर बिठाकर लाते लेजाते थे उस डण्डे  चुभन हमे आजतक  याद आती है ।
स्कुल मे गलती करने पर गुरुजी द्वारा की गई पिटाई हमारे  जीवन की सहज सामान्य प्रक्रिया थी ,पीटने वाला और पिटने वाला दोनो खुश थे , पिटने वाला इसलिए कि कम पिटे ,  पीटने वाला इसलिए खुश कि छात्र दौबारा गलती ना करे। 
आज हम गिरते - सम्भलते , संघर्ष करते दुनियां का हिस्सा बन चुके हैं , कुछ मंजिल पा गये हैं तो कुछ न जाने कहां खो गए हैं ।
हम दुनिया में कहीं भी हों लेकिन यह सच है , हमे हकीकतों ने पाला है , हम सच की दुनियां में थे और आगे भी रहेंगे ।
हम आजकल सिर्फ ख्वाब बुन रहे हैं , शायद ख्वाब बुनना ही हमें जिन्दा रखे हुये है वरना जो जीवन हम जीकर आये हैं उसके सामने तो  यह वर्तमान कुछ भी नहीं है । भले ही आधुनिकता का दौर हो।
हम अच्छे थे या बुरे थे पर हम बचपन के समय मे बहुत खुश थे, काश वो समय फिर लौट आए ।
 

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