रविवार, 5 अप्रैल 2020

हम कितने धनवान थे

।। धनवान ।।
                जय आईमाताजी ।।
             हम कितने धनवान थे इसके सबूत,
  पाव-आधाकिलों गुड खडे खडे खा जाते थे,
    शरदीयों मे गुड घी कटोरा पर चट करते थे,
बैलों के साथ तिलगुड हम भी खाते थे,
    तिल का तेल कटोरी भर पी जाते थे,
सुबह उठकर घाट छाछ  घैण भर खाते थे ,
    वलौवणा से मक्खन की डलिया उडाते थे,
समज न पाये घर वाले , इसलिए
  ठंडा घी खाकर  बरणी वापस गरम करते थे,
मटके का आचार , अगुंलिया भी घंटो चाटते थे,
   बस्ता एक फटी थेली मे रखते थे,
कभी पाटी टूटी हुई तो कभी पेन्सिल नही होती थी ,
     फटी थैली से गिरी पेन्सिल तो ,
मजा आता था गुरुजी से पिटने मे😊
    स्कूल की फीस महीनों बाद ही देते थे,
आज कहा तो ,, कॉपी, किताब,चित्रकला के रंग
, और स्याही महिनों बाद ही मिलते थे,
     घर और स्कूल के कपडे एक ही रखते थे ,
अण्डर पेन्ट का नामोनिशान नही था,
    क्योंकि  समझ भी नही थी,
चड्डी का रंग आगे अलग व पिच्छे अलग ,
   कप्पे पर कप्पा , हाथ सिलाई दर्शन देती थी,
न माप था, न फिटींग थी , ढीलाढाले वस्त्र थे,
    पांचवी से आगे पढे नही हम,
क्योंकि हम किसानों के लाडले थे,
   छुट्टी के दिन काम नही किया तो,
हन्नारे से व परवोणी से मालिश होती थी,
     यह तो कुच्छ नही यारों
दो रुपये की मजदूरी हम प्रतिदिन करते थे,
    उन्हाला मे खेतो मे भटक भटक कर,
बबूल बबूल गुंद हम ढूंढते थे,
ईल्लू पिल्लू तुम क्या जानो , शहर वालोँ ,
     गुंदा , पिल्लू, कैर , गुंद, आमली हमारे
फल फ्रुट ओरिजनल थे ,
      हर दिन नया गुल्ली डंडा होता था,
लट्टुओं की प्रतिस्पर्धा मे कितने ही लट्टू टूटते थे,
  गोटी गोटी खेलकर , खुन खुणीयों से हम निकालते थे,
     घी पाटी, सतौलिया ,टील्लमटिल्ला के
अतिप्रिय खेल हमारे थे,
     मैदाने जंग कब्बडी मे पहलवानी हम करते थे,
फुटबॉल तो सर पर लिये घूमते थे,
     खो खो मे तो हम महारथी थे ही बिना शक,
देख पेड की टहनियां जिम्नास्टिक हम करते थे,
           वही बात आज मुंबई की लोकल ट्रेन मे अजमाते है ,
    काम आयी वो कला , आज शहरो मे भी ,
गर्दी कितनी भी हो, सबसे पहले चढने उतरने की
       आज पढलो तुम भलेही,
कमप्यूटर और इंटरनेट ,
     करलो जिम या बन जाओ पहलवान ,
नचाओ चाहे दुनिया अपनी अंगुलियों से,
    हो नही सकते तुम हम समान ,
        तनमनधन से,
     और भी बहुत तरीको से धनवान थे हम,
धन का भलेही अभाव था,
      मगर मन के धनवान थे हम,
एक अंगोछे मे सभी दोस्त नहाते थे,
      लस्सी जब बनाते थे तब
मटका भर कर लोटे से पीते थे हम,
       दूध ताजा पीने को बछडे के साथ हो लेते थे
👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌
              लगे आज भलेही शहरी बच्चों को काल्पनिक ,
              मगर जेब मे पाई भी न होकर धनवान थे हम ,
      हरख नही समाते थे हम,
चटणी और सुखी रोटी खाकर
       बडा मजा आता था रोटी और प्याज के पान चबाने मे ,
      करते थे जब तपणीया बैरे पर,
कडकाकडक रोटी और मिरची हरी चट

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