"लाटा "
हमारे गाँव के दक्षिणी भाग मे पुराने समय पुरे गाँव के लाटे थे । जहाँ पर जागिरी के समय लगान के अनाज का हिस्सा करने के बाद बाकी अनाज घर पर लाते थे । आजादी के बाद लाटे धीरे-धीरे कम होते गये और आज पुरे लाटो की जगह बस्ती बस गई है अब आधुनिकरण मशीनरी के कारण लाटो की आवश्यकता भी नहीं है। खेत मे ही अनाज निकालकर बोरिया भर दीं जाती है । पुराने समय के बारे मे तो सिर्फ बुजुर्गो से सुनते हैं लेकिन मेरे देखते समय के जो लाटे थे उनके बारे मे बता रहा हुँ। हमारे यहाँ तो जमीन को समतल बनाकर गोबर से लिपते थे । जिसमे मून्गो ज्वार बाजरा ग्वार मोठ आदि का लाटा लेते थे । जहाँ पर गेहूँ रायडा सरसो की पैदावार होती है वहाँ पर गेहूँ कटाई के दौरान खेत के एक हिस्से में बना लाटा बनाते है । उसको "वला "भी कहते है "वला "एक छोटा सा क्षेत्र होता है, जहाँ पूरे खेत की कटी हुई फसल इकट्ठा की जाती है। इसी "वला " में फ़सल से अनाज निकाला जाता है।" वला" बनाना भी एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। एक बड़ी सी क्यारी बना ली जाती है। इसमें पानी भर देते हैं। नंगे पैरों से इसकी खुंदाई होती है। चिकनी माटी डाली जाती है ।लोग खिन्प या सण का छोटा हिस्सा लेकर पानी व माटी मे जोरदार घुमाते है । सूखने के बाद पैर तैयार हो जाता है। यहीं पर गेहूँ हो या सरसो से अनाज निकालने का कार्यक्रम चलता है। लेकिन ये भी आजकल बन्द हो गया है । अब तो डायरेक्ट थ्रेसर मे ही डाल देते है अनाज बोरी मे चारा एक तरफ इक्कठा का देते है ।
लाटो की जरुरत तो तब थी जब बैलो व बैलगाड़ीयो से अनाज निकालते थे और दो तीन महिने लग जाते थे। तब जाकर अनाज घर पहुसता था । अब तो कटाई के चार दिन बाद अनाज घर में आ जाता है। लाटो मे जो चारा होता था चाहे बाजरे का हो या मूँग का हो या अन्य कोई भी चारा हो चारे को सुरक्षित रखने के लिये "कालर " ( कराई) गोलाजार झोंपडे की आकृति मे दीं जाती थी । जिसमे प्राकर्तिक रुप से पांच छह वर्ष तक चारा खराब नहीं होता था। वो भी अब कही कही ही दिखाई देती है ।
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