मल्लो
मित्रो कई जगह गाँवो के चौक मे छोटे बड़े दो तीन साईज के खाँसा नुमे पत्थर पड़े हुये रहते है। उसे भले ही हम बेकार पत्थर समझ रहे है । लेकीन किसी समय मे ये भी गाँव के प्रतिष्ठा व सम्मानजनक औजार थे जो गाँव के सबसे ताकतवर इन्सान होने का अहसास करवाते थे। और उसे मल्ला कहते थे ।
"मल्ला " पत्थर को घड़कर बनाया जाता था ,जिसमे ऊठाने के लिए एक खांचा बनाया जाता था । मल्ल ओसतन 35 से लेकर 90 किलो थे । मल्ले राजस्थान के लगभग सभी गाँवो मे देखने को मिल जायेंगे । मल्ला ऊठाना होली या अन्य किसी भी प्रोग्राम पर एक रोमांचक खेल होता था, मेले या होली पर गांव ढाणियों के सारे आदमी एक जगह इकट्ठे होते हैं तो मल्ला उठाना प्रतिष्ठा का सवाल होता था।अगर दो गाँवो या एक ही गाँव की दो गली के व्यक्ती या गाँव की दो प्रतिस्पर्धी जाति के व्यक्ति ईकटा होते थे तो फिर मल्ला उठाना प्रतिष्ठा का प्रतीक बन जाता था सबसे भारी माला उठाने वाला व्यक्ति गांव का सिरमोर होता था ।उसे बारात मे विशेषकर ले जाते थे।अमुनन मामला बराबरी पर खत्म हो जाता था । दो तीन व्यक्ति गांव में ऐसे मिल ही जाते हैं जो गांव की सबसे बडे माला को उठा लेते थे।पुराने समय बारात के डेरे से वधु के घर के रास्ते बीच मे मल्ला रख दीया जाता था । गांव के सबसे भारी मल्ला को रख दिया जाता था और उस मल्ले को उठाए बगैर बरात आगे नहीं जा सकती थी । बगैर मल्ला उठाए जाना अपमान समझते थे । इसलिए बरात में मजबूत कद काठी वाले व्यक्तियों को भी ले जाते थे। इस बार मै गाँव गया था तो हमारे गनायत वागाराम जी काग से मल्ले उठाने के बारे मे बात सुनी थी
उन्होने कहा कि मालवियो की वास से हरजी रामजी मालवी ने कह दिया कि इस मल्ला को उठ्ठाणा किसी मर्द का काम है और कागो की बास मे मुझे कोई दिख नही रहा है। किसी को मल्ला उठाते नहीं देख मुझे गुस्सा आ गया था और काग गणेश रामजी ने भी कह दिया कि "देखे काई है ऊठार फेंक दे "और बड़े जोश के साथ मै मल्ला ऊठाने के लिए आगे आ गया और एक ही झटके मे मल्ला ऊठा लिया । सभी ने मेरी पीठ थपथपाई और उस समय का मुख्य उपहार गोटा (नारियल) दिया ।
पहले बुजुर्ग मल्ला उठाए बगैर आगे जाने को अपना मरण समझते थे।
उन्होने कहा कि एक बार गाँव का नाम भुल गया हुँ उस गाँव मे किसी ने पनघट के रास्ते मे मल्ला रख दिया था फिर पानी लेने आई एक औरत जो काफी मजबूत कदकाठी की थी ऊसने मल्ले को ऊपर ऊठा कर के बाड़ मे फेंक दिया ऊसके बाद से आजतक उस गाँव में कोई मल्ला नही ऊठाता है।
उन्होने कहा कि मल्ला ऊठाने के लिये जितनी ताकत जरुरी है, उतनी कला भी जरुरी है ।कला से बड़ा से बड़ा मल्ला भी ऊठा सकते है। जब ताकत और कलाकारी का मेल हो जाता फिर बड़ा मल्ला भी हल्का लगता है।बिना कला के सिर्फ ताकत से मल्ला ऊठाना मुश्किल होता है।बिना कला के बहुत से ताकतवर भी मल्ला नही ऊठा सकते है।
आजकल तो मल्ला ऊठाने को पढे लिखे अनपढ आडुपना कहते है जबकी वास्तव मे ईसमे तकनीक ओर कला की जरुरत होती है।यह वीडीयो चोधरी साहब का है जो 58 की आयू मे माला लगा देते है ईसका वजन कम है 38 किलो फिर भी आजकल के कोम्पलेन युवाओ के लीए यह सम्भव नही है।
फिर भी आज भी बुजरगो की भुजाए मल्ला देख के फफक ऊठती है ।
आस-पास के कई गाँवो मे तो मैने मल्ले देखे है पहले हमारे गाँव मे भी थे लेकिन अब शायद किसी की गाय भेंस बाँधने का खून्टा बना हुआ होगा ।
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