"बीरा बणजे तू जायल रो जाट
बणजे खींयाला रो चौधरी
एक बार खींयाला के सरदार धर्मोजी व जायल के चौधरी गोपालजी दोनों ऊंटों पर लगान की रकम जमा करने दिल्ली जा रहे थे. रास्ते में जयपुर के पास स्थित हरमाड़ा गाँव के तालाब पर पडाव किया. उसी दौरान लिछमा नाम एक एक गूजरी तालाब पर उदास खड़ी थी और उसके आँखों से आंसू आ रहे थे. यह देख दोनों चौधरियों ने उदास पनिहारिन की व्यथा का कारण पूछा तो उसने बताया कि आज मेरी पुत्री का विवाह है और मेरे पीहर में कोई नहीं है जो माहेरा (भात) लेकर आ सके. इस कारण घर पर सभी लोग मुझे ताने दे रहे हैं. मुझे चिंता है कि यदि मेरे कोई नहीं आया तो मेरा माहेरा कौन भरेगा. एक अनजान गूजरी की व्यथा सुनकर जाट बंधुओं का ह्रदय भर आया. उन्होंने उसे आश्वासन दिया कि हम खिंयाला और जायल के जाट हैं तुम हमें अपना धर्म-भाई समझो. हम तुम्हारा माहेरा भरेंगे. यह सुन लिछमा प्रसन्न होकर अपने घर लौट गई. तय समय पर लिछमा के घर धर्म-बंधु धरमोजी और गोपालजी माहेरा भरने पहुंचे. उन दोनों ने लिछमा के परिवार के सदस्यों के साथ सभी ग्राम वासियों को विविध उपहार देकर अपने ऊंटों पर लदी सारी सरकारी लगान की रकम माहरे में भरदी. बाद में दोनों चौधरी खाली ऊंटों को लिए दिल्ली पहुंचे और सुलतान को सारी हकीकत बताकर सजा भुगतने को तैयार हो गये. इस पर दिल्ली सुल्तान ने उनके हिम्मत और हौसले की तारीफ़ की और उन्हें 500-500 बीघा जमीन इनाम देकर विदा किया. आज भी राजस्थान में माहेरा गीतों में खींयाला ओर जायल के चौधरी की यशोगाथा गायी जाती है और ऐसे अवसर पर जायल और खिंयाला के यशस्वी बंधुओं का स्मरण करते हुए प्रत्येक बहिन अपने भाई से ऐसे ही आदर्श भ्राता बनाने का अनुरोध करती है -
"बीरा बणजे तू जायल रो जाट
बणजे खींयाला रो चौधरी "
राव, ढोली व डूम लोग भी जगाह्जगाह इस गाथा का बखान "खिंयाला रा चौधरी बडियासर बंका , न मानी राज की शंका " इत्यादि कहकर यशोगान करते फिरते हैं . आज भी खिंयाला के बडियासर इस परंपरा का निर्वाह करते है कि यदि किसी स्त्री के पीहर में कोई माहेरा भरने वाला नहीं है और वह स्त्री चाहे किसी भी जाति की हो, खिंयाला जाकर माहेरा न्यौत आती है तो वहां के बडियासर लोग सब शामिल होकर उस औरत के ससुराल जाकर माहेरा भरकर आते हैं
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