कांटी
कांटी (एक तरह का घास) हमारे यहाँ बहुत होती है । बरसात होने के कुछ दिन बाद जमीन के उपर बेल की तरह ही दो तीन फीट तक फैलती है कोन्टिये लगने तक करीब सभी जानवर इसे बड़े चाव से खाते है कांटी को पीले रँग के छोटे छोटे फूल बहुत ही सुन्दर लगते हैं, लेकिन इनके फूलों की जिन्दगी ज्यादा बड़ी नहीं होती है, कांटी फलने के बाद कांटिये लगते है जिसे हमारे गाँवों मे देसी भाषा मे कोन्टिये को(बोबीया)भी कहते हैं, इनको सुखे कोन्टियौ को बहुत साल पहले मैने बाजार बिकते हुए देखा था । वो भी प्रति तोला भाव से । शायद कोई देशी दवाई मे काम आता होगा । ये पकने व सुखने के बाद मे इनका कंटीलापन भी बहुत याद आता है ये चप्पल के निचे फसकर घर के आसपास आ जाते थे। कांटिये के कांटे छोटे होने के बावजूद भी इतनी चुभन देते थे कि पेरों में चुभते ही लगता था कि जैसे जहरीले जानवर ने डंक मारा हो,जब कभी स्कुल की छूट्टियो के दिनों में गायें चराने जाते थे तब इन कांटियों की चुभन का हमे बहुत डर लगता था जो आज भी इनकी चुभन हमे याद आती है ।
कांटी के बारे मे राजस्थानी मे एक कहावत है कि चुपचाप रहिजे नितर कान मे कांटी घाल ने मरोड़दुला ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें