...।।विरहण धण री वेदना।।..........
दूर बसियाँ दिसावरां,लागी धन री भूख।
सावण न आया सायब,हिवड़ै विरह री हूक।।1।।
दूर बसयाँ दिसावरां,लागी धन री लाय।
सावण बितयो सायबा,अब घरो ने आय।।2।।
सावण बितयो सायबा,भादरवो पण जाय।
छाँट अमी जळ छाँटणा,देह लता मुरझाय।।3।।
हरियाँ डूंगर वन हुआ,वेल विरख लिपटाय।
अलबेला आव घरोह,तन मन मत तरसाय।।4।।
धन लारे धावे मती,जरा गात ने खाय।
वेगि वळण कर वालमा,अवसर चुकयो जाय।।5।।
जर संगरहतो जीव गयो,जोवन गयोज बीत।
सायधन केवे सायबा,रूड़ी थारी रीत।।6।।
सतियाँ राखे सायबा,पेला जेडी प्रीत।
(पण)चौमासो सुखो रह्या,जावे अवसर बीत।।7।।
चौमासो बरस्यो सरस,खेतर सब खडयाह।
वळण करिह नह वालमा,(थारा)घोड़ाह् किथ अड़याह।।8।।
विरह जौवन बैर जब्बर , जुग जुग जूनी बात।
भुजंग जाण बिरह भयंकर,पल पल धण ने खात।।9।।
बरसत जळ बांबी बड़्यो,भुजंग़ निसरयो हाय।।
विरहण घर में ऐकली,डसयो उण ने जाय।।10।।
घरां आव रे गारुड़ी,जीव धण रो जाय।
वेगो आजे वालमा,ओखद कोय बताय।।11।।
तुझ आया ही होवसी, ईए जीव रा जतन।
लोभी थारां लोभ में,रुळ जाची रे रत्तन।।12।।
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